Book Title: Ratisarakumar Charitra
Author(s): Kashinath Jain
Publisher: Kashinath Jain

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Page 85
________________ 74 रतिसार कुमार - श्रेष्ठता नहीं लाभ करता। इसका यही हाल समझना चाहिये। इसकी स्थिति 20 कोटानुकोटि सागरोपम की है। ८-अन्तराय-कर्मके पाँच भेद हैं:-दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय, और वीर्यान्तराय / इस कर्मकी उपमा राजाके भण्डारीसे दी जाती है / इसकी स्थिति 30 कोटा नुकोटि:सागरोपमकी है। ___"इस प्रकार यद्यपि यहाँ थोड़े ही कहा गया, पर यह कर्मरूपी महारोग बहुत दिनोंतक साथ लगा रहता है, इसलिये सत्पुरुषोंको चाहिये, कि प्रमाद-रहित होकर शुद्धध्यान-रूपी औषधसे इसे शान्त करें। शुद्ध-ध्यान सब सुखोंका मूल वीज है। विषय-कषायसे विरक्त बने हुए, सन्तोषसे प्रेम रखनेवाले पुरुषोंकोही यह प्राप्त होता है। इसलिये सब प्राणियोंको इस गुणको धारणकर शुद्धध्यान प्राप्त करनेका प्रयत्न करना चाहिये। __ "इसके सिवा सद्वाक्यसे बढ़कर दूसरा कोई वशीकरण मंत्र नहीं है। कलासे बढ़कर दूसरा कोई द्रव्य नहीं है। अहिंसासे . बढ़कर दूसरा धर्म नहीं है और सन्तोषके सिवा और कोई सुख नहीं है। इन सेव्य और सार-भूत गुणोंकी जननी विरति है / केवलियोंने सर्व विरति और देश-विरति नामके दो विभाग इसके किये हैं। विवेकी, मतिमान् और सुखकी इच्छा रखमेवाले पुरुषोंको इस विरतिको ग्रहण करनेमें- इस सत्कर्ममें-कभी प्रमाद नहीं करना चाहिये, नहीं तो बड़े-बड़े विघ्न होते हैं। क्षणमात्रकी आयु भी करोड़ों रत्न देनेपर नहीं मिल सकती, इसलिये बुद्धि P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust

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