Book Title: Ratisarakumar Charitra
Author(s): Kashinath Jain
Publisher: Kashinath Jain

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Page 80
________________ पांचा परिच्छेद अवधिदर्शन कहलाता है। अथवा इन्द्रियोंकी सहायताके बिना ही असे वोध उत्पन्न होता है, उसे अवधि कहते हैं। उसीके द्वारा सामान्य अर्थका ग्रहण करना दर्शन हुआ। वही दर्शन अवधिदर्शन कहलाता है। जिस कर्मके उदयले इस दर्शनका आवरण होता है, वह अवधिदर्शनावरण कहलाता है। यह आठवाँ भेद है। लोकालोकके लब द्रव्योंका सामान्यरूपसे अववोध होना, केवल-दर्शन कहलाता है। इसका जो आवरण करता है, वह केवलदर्शनावरण नामक नवाँ भेद है। 'जैसे राजदर्शनकी इच्छा रखनेवाले मनुष्यको यदि पहरेदार राजासे नहीं मिलने देना चाहे, तो हज़ार रुकावटें डाल देता है , वैसेही दर्शनावरण कर्मसे बंधा हुआ जीव किसी वस्तुको यथार्थ रूपमें नहीं देख पाता। इसलिये इस कर्मको ठीक पहरेदारके समान जानना चाहिये। इसकी स्थिति तीस कोटाकोटि सागरोपम की है। ३-वेदनीय कर्मके दो भेद हैं। (1) शातावेदनीय और(२) अशातावेदनोय। तिर्यंच और नरकगतिमें प्रायः अशातावेदनीयका उदय होता है तथा मनुष्य और देवगतिमें शातावेदनीयका। जैसे शहद लपेटी हुई खङ्ग-धारा चाटनेमें पहले मीठी मालूम होती है और इससे जीव अपने मनमें लुख मानता है; पर जब खङ्ग'धारासे जिह्वा कट जाती है, तब दुःख अनुभव करता है, वैसेही पाँचों इन्द्रियोंके अनुकूल विषयोंकी प्राप्तिले मनुष्य अपने सुख मानता है और उनके नहीं पानेसे विरह-दुःख पाता है। यही P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust

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