Book Title: Ratisarakumar Charitra
Author(s): Kashinath Jain
Publisher: Kashinath Jain

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Page 78
________________ पांचवां परिच्छेद ही रहता है, वैसेही स्थिर होकर प्रकाश फैलाने लगीं। इसके बाद घातिकर्माको जलानेवाली दावाग्निके समान शुक्लध्यान प्रकट हुआ और तीनों लोक तथा तीनों कालको दर्पणके समान प्रकट कर दिखानेवाला केवल-ज्ञान उत्पन हुआ। - उस समय शासनदेवताने उन्हें मुनि-वेश धारण कराया और सुवर्ण-कमलके आसनपर पधराया। तदनन्तर सभी सुरासुर फुल बरसाते हुए उन्हें प्रणाम करने लगे। यह अद्भ त चरित्र देख, राजाके अन्तःपुरके सभी मनुष्य चकित हो गये और स्त्रियाँ, "हे नाथ! यह क्या मामला है ?" यह पूछती हुई, हाथ जोड़े, उत्तरकी प्रतीक्षा करने लगीं। उसी समय रतिसार केवलीने अपने दांतोंकी चमकसे मूर्तिमान पुण्यका विस्तार करनेवाली और पापकी जड़-मूलसे उखाड़ फेकनेवाली यह देशना सुनायी: "अहा! महाउद्धत और मर्मविद् कर्मरूप राजाके वशमें आकर प्राणी संसारका दास हो जाता है और इससे हरदम नाना प्रकारकी विडम्बनाओंमें पड़ता रहता है। हे सन्त पुरुषों! संसारके कारण-रूप ये कर्म अनादिकालसे आत्माके साथ लगे हुए हैं। नाम और भेदसे ये कर्म आठ प्रकारके हैं, इन्हें भली भांति समझ लेना चाहिये। इनके नाम क्रमसे ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय हैं। , १-प्रथम ज्ञानावरणीय कर्मके-मतिक्षान्नावरणीय, श्रुतमानावरणीय, अवधिज्ञानावरणीय, मनः पर्यायशानावरणीय और P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust

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