Book Title: Ratisarakumar Charitra
Author(s): Kashinath Jain
Publisher: Kashinath Jain

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Page 76
________________ पाँचवाँ पारच्छेद 65 करते हुए राजा रतिसारने पृथ्वीके लोगोंके लिये नरकका दरवाज़ा बन्द करा दिया और स्वर्गका फाटक खुलवा दिया। एक समयकी बात है, कि राजा रतिसार अपने विलासमन्दिर में अपनी तीनों प्रियतमाओंके साथ बैठे हुए प्रेमालाप कर रहे थे। इसी समय प्रिया सौभाग्यमअरीके मुखड़ेकी ओर देखते हुए उन्होंने कहा, "हे चन्द्रमुखी! तुम्हारे मुखपर यह चन्दनकी बिंदी नहीं सोहती, इसलिये लाओ, मैं इसे मिटाकर कस्तूरीका तिलक लगा दूँ / " यह कह, सात्विक स्वेदसे भीगी हुई अंगुलीसे राजा रतिलारने सौभाग्यमञ्जरीकी सुन्दर कान्तिको बढ़ानेवाली यह बिन्दी पोंछ डाली, बिन्दी पुछ जानेपर और सभी शृङ्गार मौजूद रहते हुए भी रानी सौभाग्यमञ्जरीका मुखड़ा वैसाही फीका दिखाई देने लगा, जैसे सब ताराओंके. मौजूद रहते हुए भी चन्द्रमाके बिना रात्रि फीकी दिखाई देती है। यह देख, राजा रतिसारने अपने मनमें विचार किया,-"आहा ! जब एक बिन्दीके पुंछ आनेसे यह ऐसी शोभाहीन दिखाई देती है, तब अन्य विशेष आभूषणोंके न रहनेपर यह कैसी दिखाई देगी ?" ऐसा विचार मनमें उत्पन्न होते ही उनके हृदय-समुद्रमें वैराग्यकी लहरें उठने लगी और उन्होंने रानीके सब गहने उतरवा दिये। पहले शिरोरत्न :उतरा, जिसके बिना सारा शरीर रात्रिके समय बिना दीपकके मकानके समान मालूम पड़ने लगा। जब दोनों कानोंके कुण्डल उतर गये, तब वह सूर्य-चन्द्रहीम आकाशके समान मालूम पहने लगी। हार उतर जानेपर वह बिना तोरणके देवगृहके P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Sun Gun Aaradhak Trust

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