Book Title: Ratisarakumar Charitra
Author(s): Kashinath Jain
Publisher: Kashinath Jain

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Page 77
________________ रतिसार कुमार समान दीखने लगी। बाजूबन्द उतर जानेपर उसका शरीर कमलहीन सरोवरके समान दिखाई देने लगा। हाथोंके कंगन खोल देनेपर वह बिना लताओंके वृक्षके सदृश मालूम पड़े। चरणोंके आभषण खोल डालनेपर वे चरण हंस-रहित कमलिनीके समान मालूम पड़ने लगे। इस प्रकार सारे जगमगाते हुए आभूषणोंके उतर जानेपर रानी पत्र-पुष्पहीन फाल्गुनमासकी लताके समान हो गयी।. .. , 'यह दृश्य देख, राजा अपने मनमें विचार करने लगे,-"जैसे बिना नहाये किसीके अङ्ग शुद्ध नहीं होते, वैसेही बिना आभूषणोंके कोई भी स्त्री शोभायमान नहीं दीखती। औरोंकी तो बात ही क्या है ? आत्मा भी कर्मोंका मल धोये बिना और ज्ञान, चारित्र तथा दर्शनके अलङ्कारों बिना नहीं सोहती। इसलिये कर्मोसे मलिन बने हुए शरीरको शृङ्गार करके सजाना, मयूरके नृत्यके समान है, जिसका भीतरी भाग पंखोंकी दिखाऊ शोभाके भीतर छिप जाता है। शरीरपर आभूषण धारण करनेसे आत्माका शृङ्गार नहीं होता। इसके विपरीत, जैसे सूर्यकी किरणोंसे सारा आकाश शोभायमान दीखता है, वैसेही आत्माके आभूषणसे सभी अङ्गोंमें शोभा फलकने लगती है। इसलिये मैं भी इस शरीरके भूषण-रूप आत्माको कर्म-मलसे निर्मल बना कर उसे ज्ञान, दर्शन और चारित्र-रूपी आभूषणोंसे भूषित करूँगा।" - इस प्रकारके विचारमें पड़े हुए राजाकी मनोवृत्तियाँ मात्माके मन्दर स्थित हो रहीं और जैसे बिना हवाके मकानमें दीपक स्थिर P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust

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