Book Title: Ratisarakumar Charitra
Author(s): Kashinath Jain
Publisher: Kashinath Jain

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Page 81
________________ 70. रतिसार कुमार raamannaamanar on-vvv vNNN ~ ~ ~ ~nr शातावेदनीय कर्म है। यह सुख-दुःख दोनोंका कर्ता है। इसी लिये इसकी उपमा मधुलिप्त खग-धारासे दी जाती है। इसकी स्थिति तीस कोटानुकोटि सागरोपमकी है। / ४-मोहनीय कर्म दो प्रकारके होते हैं। (1) दर्शनमोह___ नोय और ( 2 ) चारित्र-मोहनीय। इनमें प्रथम दर्शन-मोहनीय- के तीन भेद हैं:-१. सम्यगदर्शनमोहनीय, 2, मिश्रदर्शनमोहनीय .. और 3 मिथ्यात्वदर्शनमोहनीय / चारित्र-मोहनीय पश्चीस प्रकारका होता है:-क्रोध, मान, माया, लोभ-ये चार प्रकारके कषाय हैं। इनमेंसे प्रत्येक कषायके संज्वलन, प्रत्याख्यान, अप्रत्याख्यान और अनन्तानुबन्धये चार-चार भेद हैं। इनमें संज्वलन-कषायकी स्थिति एक पक्षकी है। प्रत्याख्यान कषायकी स्थिति चार मास तक रहती है। अप्रत्याख्यान एक सालतक रहता है / अनन्तानुबन्ध जीवन भर बना रहता है। ये चारों प्रकारके कषाय सेवन करनेवाले प्राणियोंके भवान्तरमें वीतरागपन, यतिपन, श्राद्धपन और सम्यक्त्वका नाश करते हैं और क्रमसे अमरत्व, मनुष्यत्व, तिर्यक्त्व और नारकीपन प्रदान करते हैं। इस तरह सोलह कषाय हुए। इनके सिवा हास्य, भय, शोक, जुगुप्सा, रति, अरति, पुरुषवेद, स्त्रीवेद और नपुंसकवेद-ये नवों कषाय भी है। सब मिलाकर 25 भेद हुए। __ इस प्रकार मोहनीय कर्मके 28 भेद है। ये कर्म चिरकालपर्यन्त भव्य प्राणियोंके लिये भी दर्जय होते हैं। इन कमोका P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust

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