Book Title: Ratisarakumar Charitra
Author(s): Kashinath Jain
Publisher: Kashinath Jain

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Page 79
________________ रतिसार कुमार केवलज्ञानावरणीय-ये पांच भेद हैं। जैसे निमेल दृष्टि वस्त्रसे ढंक जानेपर कम देखती है, वैसेही यह आत्मा भी ज्ञानावरणीय कर्मसे ढंक जाती है। इसलिये इस कर्मको वस्त्रपट के समान समझनाचाहिये / इल कर्मकी स्थितितीसकोटानुकोटि सागरोपम की है। इसके बाद भी आत्मा यदि पापाचरण करती है, तो पुनः उन कर्मोंका सञ्चय करती है। २-दूसरे दर्शनावरणीय कर्मके, पांच निद्रा और चक्षुदर्शनावरणीय आदि नौ भेद हैं। जिसमें स्वल्प यत्नसे शब्द करतेही सुखसे प्रबोध हो सके, वह निद्रा है। जो निद्रा वहुत ठोंक-पीट पर करने मुश्किलसे टूटती है, उसे निद्रानिद्रा कहते हैं। जो नींद खड़े होने या बैठनेकी हालतमें भी आ जाती है, उसे प्रचला कहते हैं। जो नींद राह चलते भी आ जाती है, वह प्रचलाप्रचला कहलाती है। दिनमें या रातमें जागते समय जिस कामकी चिन्ता की जाये, वह काम निद्रावश होनेपर भी करना, स्त्यानर्द्धि नामक पाँचवाँ भेदं जानना। यह स्त्यानर्द्धि-निद्रा प्राणीके क्लिष्ट कोक उदयसे प्राप्त होती है। चक्षुले पदार्थको साधारण रीतिसे देखना, चक्षुदर्शन कहलाता है और वह जिस कर्मके उदयसे आवृत होता है, वह चक्षुदर्शनावरण नामका छठा भेद है। चक्षुके सिवा अन्य इन्द्रियोंका जिससे आवरण होता है, वह भचक्षुदर्शनावरण नामका सातवाँ भेद है। - रूपी द्रव्यफी मर्यादाकोही अवधि कहते हैं। उसीका दर्शन P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust

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