Book Title: Ratisarakumar Charitra
Author(s): Kashinath Jain
Publisher: Kashinath Jain

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Page 71
________________ रतिसार कुमार करूँगा। यदि अपमानका बदला लिये विनाही मैं व्रत ग्रहण कर लूंगा। तो लोग मेरे पूर्वजोंके विषयमें भी यही शङ्का करेंगे, कि उन्होंने भी इसी तरह अपमानित होकर व्रत लिया होगा।' -“मैं इसी प्रकार त्याग और बदलेके भावोंसे भरा हुआ विचार कर ही रहा था, कि इसी समय मेरा मंत्री मेरी सारी सेना लिये हुए वहाँ आ पहुँचा। उसी समय दोनों सेनाओंमें भय. ङ्कर युद्ध छिड़ गया। अपनी मृत्युका भय भूलकर हाथी हाथीके साथ, घोड़े घोड़े के साथ, रथी रथीके साथ और पैदल सिपाही पैदलोंके साथ भिड़ गये। वीर सिपाही जानपर खेलकर लड़ाई करने लगे। दोनों हो सेनाओंमें चले हुए जवान थे, इसलिये "धनुष कट जाते, तलवारें टूट पड़तों, पर शूरतासे लबालब भरे हुए सिपाही न मरे, न कटे! खूब जमकर लड़ाई होने लगी। धीरे-धीरे वहाँ रक्तकी नदीसी प्रवाहित हो चली / अवके वीरोंके रुण्ड-मुण्ड उस नदीमें कच्छ-मच्छसे उतराने लगे। बड़ी देर बाद मेरी सेनाके पैर उखड़नेके लक्षण दीखने लगे। तव क्रोधसे भरकर एक हाथी पर सवार हो, मैं उस पुरुषके साथ द्वन्द-युद्ध करने चला और उसके सामने आ पहुँचा / बात कीबातमें मैंने बाणोंकी बौछारसे उसको सारी सेना समेत ढक दिया ; पर उसने भी बड़ी बहादुरीके साथ मेरे बाणोंको काटते हुए अपनी और अपनी सेनाकी रक्षा की। इधर उसके चलाये हुए बाणोंने मेरी लेनाका देखते-देखते सफाया कर दिया। मैं जो सब अस्त्र चलाता, उन्हें वह ठीक उसी तरह काट देता था, P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust

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