Book Title: Ratisarakumar Charitra
Author(s): Kashinath Jain
Publisher: Kashinath Jain

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Page 70
________________ चौथा परिच्छेद जिस स्त्री पर मैं इस प्रकार जान दे रहा था, उसने आज मुझे उसी तरह ग्लानिमें डाला, जैसे पश्चिम दिशा सूर्यके लिये ग्लानिका कारण होती है। अभी उसके करते मेरी क्या-क्या गति होनेको है. सो कौन जाने ? जैसे अन्धकारके साथ मैत्री करनेके कारण उल्ल सूर्यसे मुंह छिपाता है, वैसेही मैं भी इस राक्षसीके प्रेममें अन्धा होकर इतने दिनोंतक मोक्षका भी निरादर करता रहा। यद्यपि इस समय मुझे वैराग्य उत्पन्न हुआ है, तथापि मैं अपने अपमानका बदला चुकाये बिना न मानूंगा; क्योंकि मानी पुरुष चुपचाप अपमान सहन कर लेना, अपने कुलमें कलङ्क लगाना समझते हैं। जो शत्रु अपनी छातीपर पैर रखे, उसे तत्काल पटककर मार डालना चाहिये ; क्योंकि अपमानित होने पर भी जो बिना सींग-पूँछ हिलाये चुपचाप रह जाता है, वह. मिट्टीके ढेलेसे भी गया-बीता है। क्षुद्र प्राणी भी अपना अपमान करनेवालेको तङ्ग किये बिना नहीं रहते। मधुमक्खियाँ अपने मधुको चुरानेवालोंको बेहद दुःख देती हैं। सूर्य पृथ्वीका सारा रस खींच ले जाता है; पर वह उससे बदला नहीं ले सकती, इसीलिये उसकी छाती क्रोध और अपमानसे फट जाती है। माताएँ भी ऐसे पुत्रोंको त्याग देती हैं, जो दूसरोंका अपमान सह लेते हैं। विन्ध्याटवी ऐसे हाथियोंको अपने पास भी नहीं रखती, जो कमज़ोर आदमियोंके द्वारा बाँध लिये जाते हैं। इसलिये इस अपमानके समुद्रको तलवारकी नावसे पार करके ही मैं संसार सागरसे पार उतरनेके लिये व्रत-रूपी नौकाका आश्रय ग्रहण P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust

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