Book Title: Ratisarakumar Charitra
Author(s): Kashinath Jain
Publisher: Kashinath Jain

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Page 68
________________ रतिसार कुमार हुए उनके पीछे-पीछे चला। उस पुरुषको ढूँढता हुआ जब मैं शहरके बाहर पहुँचा, तब मैंने वहाँ पर एक ऐसी सेना तैयार देखी, जिसके सिपाहीनीचेसे ऊपरतक सुनहले गहनोंसे लदे हुए थे। उस सेनाके मध्यमें एक हाथी पर मैंने उस पुरुषके साथ उस स्त्रीको बैठी हुई देखा। स्त्री उस पुरुषकी बायीं जाँघ पर बैठी हुई उसके गलेमें बाँह डाले हुई थी। स्त्री-चरित्रकी पूरी जानकार उस स्त्रीने मुझे दूरपर खड़ा देखकर उस पुरुषको कलेजेसे लगाते हुए मुझे बायें हाथका अंगूठा दिखा दिया! - "यह देखकर मैं अपने जीमें बेतरह झेपा और सोचने लगा,'ओह ! ये स्त्रियां मोहकी महिमाकी महोदधि हैं। ये गुणमें मदिरासे भी बढ़ी-चढ़ी हैं, क्योंकि मदिरा तो पीनेपर मनुष्यको दुःख देती है , पर ये लोक-परलोक दोनों बिगाड़नेवाली स्त्रियाँ तो दर्शनमात्रसेही पुरुषको पागल बना डालती हैं। परोपकारका नाश करनेवाली ये स्त्रियाँ विषके ही समान हैं ; क्योंकि इस जहरकी लहर मरने पर भी नहीं उतरती / उनलोगोंकी यह बड़ी भारी भूल है ; जो इन विषकी पुड़ियाओंकी चन्द्रमा आदिसे उपमा दिया करते हैं / यथार्थ में इनका असली रूप जड़-मनुष्योंको मालूम ही नहीं हो सकता / ये स्त्रियाँ विश्वासघात करने में अव्वल नम्बरकी उस्तानो हैं, क्योंकि ये युरुषके गले में बांह डाल, प्रेम प्रकट कर, उसे नरकके कुएँमें ही ढकेलती हैं। ओह ! इन्हें अबला समझकर कभी कोई इनसे हाथ न मिलाये ; क्योंकि ये पुरुषका प्राण-हरण करनेवाली और उसे धोखा देनेवाली है। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust

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