Book Title: Ratisarakumar Charitra
Author(s): Kashinath Jain
Publisher: Kashinath Jain

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Page 73
________________ रतिलार कुमार ही मुझे तत्काल जाति-स्मरण हो आया और मैं सोचने लगा,"अहा ! यह तो मेरा वही पुराना मित्र है, जिसके साथ मैंने चिरकाल-पर्यन्त व्रतपालन करते हुए अक्षय स्वर्गलक्ष्मीका उपभोग किया था। इसके बाद जब मैं स्वर्गसे चलने लगा, तब मैंने अपने इस मित्रको आलिङ्गन कर, कहा था, कि हे मित्र! जब मैं संसारकी मोहमायामें पड़कर एकदम अज्ञानी बन जाऊँ, तब तुम आकर मेरा उद्धार करना। मेरी उसी प्रार्थनाके अनुसार मेरा यह बन्ध इस समय बोध देनेके लिये यह नाटक दिखलाता हुआ मेरे पास आया है। यही सोचकर मैंने बड़े प्रेमसे अपने उस मित्रका आदर किया। उसी समय वह देवता अन्तर्धान हो गया। इसके बाद मैंने कुएँसे बाहर आकर इस संसाररूपी वनसे पार होनेके लिये तत्काल दीक्षा ग्रहण कर ली।" मुनिका यह अपूर्व आत्मचरित्र श्रवणकर, राजाको संसारसे बड़ा भय उत्पन्न हुआ और उन्होंने अपने दामाद कुमार रतिसारको ही गद्दीपर बिठाकर व्रत ग्रहण कर लिया। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust

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