Book Title: Ratisarakumar Charitra
Author(s): Kashinath Jain
Publisher: Kashinath Jain

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Page 64
________________ रतिसार कुमार बात आती थी, कि ईर्ष्याके मारे मेरी राज्यलक्ष्मी अब दूसरोंके हाथमें जाया चाहती है। मेरे मनमें उस मानवती महिलाने ऐसा अड्डा जमा लिया, कि डरके मारे मेरे धर्मगुरु भी उसमें प्रवेश नहीं कर सकते थे / इस प्रकार अनन्य-मनसे उसी स्त्रीको देखते रहने में ही अपनी आत्माको धन्य मानता हुआ मैं कामदेवकी उपासनाकोही मोक्षपद समझने लगा। एक दिन सोते समय मैंने स्वप्नमें देखा, कि मेरी आत्मा मुक्तागिरिके शिखरपर घूम रही है। उसी समय मेरी स्त्रीकी नींद टूट गयी और मैं भी जग पड़ा। जागकर मैं सोचने लगा, कि यह स्वप्न तो बड़ा ही अच्छा है-इससे तो यही सूचित होता है, कि मुझे मुक्ति मिलने वाली है। परन्तु मुझ स्त्रीके प्रेममें फंसे हुए मनुष्यके लिये यह आशा तो दुराशामात्र ही है। यह विचार मनमें उठते ही मैंने सोचा,-'इस स्त्रीकी कान्ति सोनेकी चमकको भी मात करनेवाली है, इसकी मस्तानी चाल गजगमनको भी लज्जित किये देती है, इसका एक-एक कटाक्ष मनुष्यको अपना दास बना लेता है, इसके नखोंके सामने मणियाँ भी काचके टुकड़ोंके समान मालूम पड़ती हैं, इसके मुँहकी सुगन्ध कपूर और कस्तूरीकी महकके समान मालूम होती है, इसके दाँतोंकी चमक बिजलीसे भी बढ़कर है। इसने मेरे हृदयको ऐसा लुभा लिया है, कि राज्यभोगमें भी मेरा मन नहीं लगता; पर इसके जादको मैं अपने सिरसे क्योंकर उतार डाल ? इस स्त्रीके केश महानीलमणिकी शोभा दिखलाते हैं, क्योंकि इसने मेरे हृदय में घर बनाकर मेरे दूधसे भी P.P.AC.Gunratnasuri M.S.. Jun Gun Aaradhak Trust

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