Book Title: Ratisarakumar Charitra
Author(s): Kashinath Jain
Publisher: Kashinath Jain

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Page 62
________________ 52 रतिसार कुमार अपने पुत्रको अच्छे गुरुके हाथोंमें देकर भली भांति कुलोचित शिक्षा दिलवायी थी। अधिक कहनेसे क्या ? मैंही वह चन्द्र... यशा हूँ। जब मैं सोलह वर्षका हुआ, तब संसारके तापसे दुःखित होकर मेरे पिताने मुझे एकान्तमें बुलाकर अमृत-भरी वाणीमें कहा,-'पुत्र ! यह राज्य संसाररूपी दुर्गम मार्गोका चौरस्ता है। इसमें घूमनेवाले मनुष्यको पिशाचिनी सम्पत्तियाँ पद-पदपर गिरानेकी चेष्टा करती हैं। मणि और रत्न आदि पदार्थ मोह-रूपी राजाके दीपक हैं / लोभमें पड़े हुए मनुष्य इनकी चमक देख, पतङ्गकी तरह इनपर लपकते और अधोगतिको प्राप्त होते हैं। जो लोग बोधकी नावपर सवार होकर संसारसमुद्रके पार जाना चाहते हैं, वे हाथियोंको रास्ता रोकनेवाले पर्वत समझकर दूरसे ही त्याग कर देते हैं। संसार-रूपी इस जंगलमें मृगके समान चंचल और मोह-लक्ष्मीके कटाक्षके सदृश इन अश्वोंको तो पुण्यात्मा पुरुष देखते तक नहीं। यह छत्र मोहरूपी राजाका चलता-फिरता मण्डप है और इसके नीचे छायाके बहाने इसके पाप-रूपी सेवक टिके रहते हैं। यह छत्र विवेकरूपी सूर्यके प्रकाशको अन्तरायके द्वारा पास नहीं आने देता; इसी लिये पण्डितगण ऐसी जड़तासे भरे हुए इस छत्रका सेवन नहीं करते। इस संसार-रूपी समुद्र में स्त्रियाँ अगाध जलके नीचे रहनेवाले रत्नोंके समान हैं। इसीलिये जो इनका पाणिग्रहण करता है, वह फिर बाहर नहीं निकल सकता और डूब जाता है। ऐसे विचित्र संसारको छोड़नेमें अशक होने पर un Aaradhak Trust

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