Book Title: Ratisarakumar Charitra
Author(s): Kashinath Jain
Publisher: Kashinath Jain

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Page 60
________________ .50 रतिसार कुमार कारण सुबन्धुको इस जन्ममें पूरा सुख नहीं हुआ और जैसे कोई किसी पक्षीके मुँहले आधा खाया हुआ फल छीन ले, उसी तरह उसकी लक्ष्मी छिन गयी। तुमने सारा भव-भ्रमण मिटानेवाला यह काम किया, कि उन मुलिके शरीरका रोग दूर करवाया। इसीलिये तुमको ऐसी श्रेष्ठ सम्पत्ति प्राप्त हुई है। पूर्वभवमें तुमने दुष्टोंपर भी दया दिखलायी थी और बहुतेरे जीवोंको मृत्युके मुँहमें पड़नेसे बचाया था, इसीलिये इस भवमें तुम्हारे साथ कोई शत्रु ता नहीं करता और जो थोड़ा-बहुत विरोध भी करता है, वह युद्ध करते समय तुम्हारे सामने अन्धा हो जाता है। जिन प्राणियोंके पास पुण्यकी पूँजी है, वे क्या-क्या आश्चर्य नहीं प्रकट कर दिखाते? पुण्यके प्रतापसे प्राणियों के सारे मनोरथ सफल हो जाते हैं, क्योंकि पुण्यको पाकर ही देवता भी आश्चर्यके खजाने बन जाते हैं।” ..इस प्रकार मुनि महाराजके मुंहसे अपने पूर्वभवका वृत्तान्त श्रवण कर, रतिसार कुमार बड़े ही आनन्दित हुए। उस समय राजाने अपना मुकुट नीचा कर, मुनिसे पूछा,-"महाराज! शरीरके लक्षणोंसे तो आप पृथ्वीपति मालूम पड़ते हैं। आपके शरीर पर आज भीसुन्दर तारुण्य झलक रहा है। अभी तो आपकी अवस्था तरुण तरुणियोंके बीचमें रहनेकी है। ऐसी अवस्थामें ही आपने क्यों राज्य त्याग कर अपनी आत्माको तपमें लगा रखा है ?" - यह सुन, अपनी मनोहर वाणीसे मृदङ्गकोसी मधुर ध्वनि उत्पन्न करते हुए मुनि महाराजने कहा,-"चाहे बुढ़ापा हो या CATEGDatnastroM Jun Gun Aaradhak Trust

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