Book Title: Ratisarakumar Charitra
Author(s): Kashinath Jain
Publisher: Kashinath Jain

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Page 63
________________ चौथा परिच्छेद “पण्डितगण इसमें अनुरक्त हुए बिनाही इसका ठीक उसी प्रकार सेवन करते हैं, जैसे जाड़ेसे ठिठुरते हुए मनुष्य अग्निका दूरसेही सेवन करते हैं। इसलिये हे पुत्र! मैं तो अब इस मोहजालसे निकल भागना चाहता हूँ क्योंकि अपने कुलकी यही रीति है, कि जबतक पुत्र जवान नहीं हो जाता, तभीतक राजसिंहासन "पर बैठा जाता है। अतएव हे वत्स ! जैसे मेरे पिता मुझे राज्य सौंपकर संसारसे मुक्त हुए थे, वैसेही मैं भी तुम्हें गद्दीपर विठाकर मोह-रूपी वीरके कैदखानेके समान इस संसारसे छुटकारा पाना चाहता हूँ।' यह कह, मेरे पिताने मुझे वल-पूर्वक राजगद्दी पर बिठा दिया और आप तपलक्ष्मीके साक्षात् यौवनरूपी वनमें चले गये। इसके बाद मैं पिताकी शिक्षाके अनुसार राज्यका पालन करने लगा। मैंने रत्नावली नामकी एक राजकुमारीसे विवाह ‘किया। वह मुझे प्राणोंसे भी बढ़कर प्यारी थी। मैं समझता था, कि यह स्त्री मुझे संसारके फन्देमें फंसानेवाली है, तो भी जैसे दलदल में फंसा हुआ हाथी नहीं निकल सकता, वैसेही मैं उसमें फंसे हुए अपने मनको नहीं हटा सका / उसमें मेरा मन ऐसा जा फंसा, कि मेरी राज्यलक्ष्मीके मुख्य और सुन्दर हाथी भी उसे वहाँसे खींचकर नहीं हटा सकते थे / कामदेव-रूपी पिशाचके पंजे में फंसा हुआ मेरा मन ऐसा उच्छृङ्खल हो गया, कि बड़े-बड़े मंत्री भी उसे फेर न सके। मेरा मन सोलह आने स्त्रीके वशमें हो गया, यह देखकर बढ़े मन्त्रीके मनमें रह-रहकर यही P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust

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