Book Title: Ratisarakumar Charitra
Author(s): Kashinath Jain
Publisher: Kashinath Jain

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Page 49
________________ 40 रतिसार कुमार शत्रु हो या मित्र / जो शत्रु ओंके उपद्रव सहन कर लेता है, वह मोक्षका अधिकारी होता है, फिर जो शत्रु पर उपकार करता है, उसकी गतिका तो पूछना ही क्या है ? इस लिये पिताजी! यदि आप द्वषको दिलसे दूर कर विचार करें, तो आपको मालूम होगा, कि मैंने कोई बुरा काम नहीं किया। मैं तो आपके चरण कमलों का भ्रमर हूँ-मुझे आप क्यों अपना शत्रु समझ रहे हैं ? आपने जो मुझे यह आज्ञा दी, कि मेरी भूमिपर पैर न रखो, इसे मैं सिर-आँखोंपर चढ़ाता हूँ; क्योंकि पिताकी आज्ञा नहीं . माननेवाला पुत्र बड़ा भारी पातकी माना जाता है।" “यह कह, महावीर राजकुमार, जो पुरुषोंमें रत्नके समान थे, ठीक उसी तरह परदेश जानेके लिये तैयार हो गये, जैसे हंस वर्षाकालमें कमल-वनसे प्रस्थान कर जाता है। देश-त्याग करने के लिये कुमारको तैयार होते देख नगरके रहनेवाले बड़े दुखी होने लगे। जहां-तहां लोग यही चर्चा करते हुए दीख पड़ने लगे, कि कृपामय प्राण, परत्राणमें तत्पर बुद्धि रखनेवाले हमारे हृदयाधार कुमार कहां जारहे हैं ? शत्रु ओंसे सताये जानेवालोके माता-पिताकी तरह रक्षा करनेवाले और सारे जगत्के जीवनके समान कुमार भला कहाँ जानेको तैयार हो रहे है ! जा सारे संसारको अपना कुटुम्ब मानते हैं, जिनका चरित्र बड़ा हा पवित्र और उदार है, वे कुमार भला हमें छोड़ कर कहाँ चल जाते हैं ? जैसे प्राणोंसे शरीरकी शोभा है, वैसेही उनसे यह नगर सुशोभित है। फिर वे हम सबको छोड़कर कहाँ चले P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust

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