Book Title: Ratisarakumar Charitra
Author(s): Kashinath Jain
Publisher: Kashinath Jain

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Page 53
________________ 44 रतिसार कुमार दरवाज़ेवाले किले में कैद हो गये हों। कुमारने वहाँसे निकल भामना तो चाहा, पर कहींसे भागनेकी राह न देख, वे ठीक उसी तरह चारों ओर दौड़ने लगे,जैसे मिथ्यावृष्टि पुरुष संसारके विषयों के पीछे दौड़ते फिरते हैं। जैसे मोह कदाग्रहके सहारे अभव्य मनुष्यों को अन्धा बना देता है, वैसेही उस महा भयानक दावाग्निके धुंएने कूमारको अन्धा बना दिया जैसे टापूके बीचमें पड़ा हुआ मनुष्य चारो ओर जल-ही-जल देखकर घबरा उठता है, वैसेही चारों ओर फैलती हुई आगको देखकर कुमार सब ओर विपत्ति ही विपत्ति देखने लगे। उस समय जैसे शुभात्माके पीछे-पीछे पुरुषार्थका उदय भी आया करता है। वैसेही उनके मित्र भी उनके पीछे-पीछे चलने लगे। जैसे शरीरमें कठिन पीड़ा होनेपर पाँचों इन्द्रियाँ व्याकुल हो जाती हैं वैसेही धधकती हुई दावाग्निकी ज्वाला से वे पाँचों मित्र व्याकुल हो गये। क्रमशः पास आते-आते अग्नि कुमारके वस्त्र और केशको अपनी ज्वालारूपिणी भुजा फैलाकर स्पर्श करने लगी। कुमार भी हाथ मारकर आग बुझाने लगे। उस समय ऐसा मालूम पड़ता था, मानों और कहीं जानेमें असमर्थ होकर मनुष्यके मांसकी लोभिनी वह अनि यहीं आ पहुँची है। क्रमशः अग्नि अपनी ज्वाला-जिह्वा फैलाकर उन बेचारों को चाटने लगी। अग्निके भयके मारे वे बेचारे अपने अंगप्रत्यङ्ग को ऐसा सिकोड़ने लगे, मालूम पड़ता था,मानों प्रत्येक अङ्ग दूसरे अङमें समा जानेकी इच्छा कर रहा हो जब उन्होंने देखा, कि आगने चारों ओरसे निकलनेकी राह P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust

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