Book Title: Ratisarakumar Charitra
Author(s): Kashinath Jain
Publisher: Kashinath Jain

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Page 56
________________ रतिसार कुमार जानकर मैंने आपके जीवन-दान-रूपी ऋणको अदा करनेका यहां अच्छा अवसर समझा और झट आपके पास आ पहुँचा।' यह कह, उस देवने राजकुमार और उनके मित्रोंके शरीरका श्रम और ताप अपने कर-कमलके स्पर्शसे दूर कर दिया। इसके बाद उस देवताने उन्हें यह आशीर्वाद दिया, कि आजसे तुम्हें कभी किसी तरहकी विपत्तिमें नहीं पड़ना पड़ेगा। यह कह, वह देव अपने प्रकाशसे आकाशको प्रकाशमान करता हुआ अन्तर्धान हो गया। ..... . . .... / इसके बाद जब सवेरा हुआ और कमलके धोखेमें पड़ कर भौंरे उन्होंके मुख-कमलोंके पास आ-आकर गुनगुनाने लगे, तब वेभी रातकी बातें याद करते हुए वनके भीतर घुसे। क्रमशः सूर्यको प्रखरता बढ़ती चली गयी। उसी समय उन्होंने वनके मध्य भागमें घबराकर भागते हुए बनैले सुअरोंका झुण्ड देखा / उनके पीछे सूअरोंका सरदार चला जा रहा था, जो कभी युद्धके लिये दौड़ता और कभी भागते हुए सूअरोंकी ओर देखने लगता था। उसके पीछे-पीछे हाथमें धनुष लिये और मस्तकपर, मुकुट धारण किये हुए एक घुड़सवारको देखकर कुमार अनुमानसे ही सब कुछ समझ गये और बड़े ऊँचे स्वरसे कहने लगे,-'हे महाभाग! तुम्हारी चाल-ढाल और वेश-भूषा देखकर मैं समझ गया, कि तुम कहींके राजा हो, इसीलिये मैं कहता हूँ,कि राजा, साहब! जब मुंहमें तृण दाबकर सामने आनेवाले शत्रु को भी राजागण नहीं मारते, तब फिर जो सदा तृण हो भक्षण करते है। C.SunratnasuriM. Jun Gun Aaradhak Trust

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