Book Title: Ratisarakumar Charitra
Author(s): Kashinath Jain
Publisher: Kashinath Jain

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Page 55
________________ चौथा परिच्छेद बन्द कर दी है, तब वे अपने जीवनसे एकबारही निराश हो गये। उस समय राजकुमार विश्वसेनने कहा-मित्रो! मुझे तो अब ऐसा मालूम पड़ता है, मानो हवा मुझे ऊपरको खींचे लिये जाती है, इसलिये तुम सब मुझे ढ़भावसे आलिङ्गनकर लो; क्योंकि मर जानेपर हमारी एक दूसरेसे वियोग न होना चाहिये।' यह सुनते ही वीर और जयने कुमारके पैर पकड़ लिये और कलासार तथा शूरने उनके हाथ थाम लिये। इसी समय बड़े जोरकी आंधी उठी और दावाग्निको हराकर उसके हाथले उन पाँचों मित्रोंको छुड़ा कर आकाशकी ओर ले चली। उस समय वे पुरुष-रत्न आकाशसे नीचेकी ओर दावानलसे दग्ध होते हुए जन्तुओंके समूहको कुछ उसी दष्ठिसे देखने लगे, जैसी दृष्टिसे योगीजन संसारको देखा करते हैं। थोड़ी ही देर में वे,एक ऐसे स्थानमें आ पहुँचे, जहाँ दावानलका नामोनिशान भी नहीं था। उस समय उन्हें ऐसा मालूम पड़ा, मानों वे अभी सोकर उठे हों। वे मन-ही-मन आश्चर्यमें पड़कर एक दूसरेसे पूछने लगे, कि यह क्या मामला हुआ ? वे इसी विचारमें थे, कि तुरतही वहाँ एक दे दीप्यमान मूर्तिवाला देव प्रकट हुआ। प्रकट होते ही उस देवने अपने मुखरूपी कमलसे हंसका सा मधुर स्वर प्रकट करते हुए बड़ी नम्रताके साथ कहा,-“हे राजकुमार! आपने बड़ी दया करके जिस चोरको मृत्युके मुँहसे बचाया था, मैं वही चोर हू और आपकी शिक्षासे सद्धर्मका. अङ्गीकार कर इस दशाको प्राप्त हुआ हूँ। अपने अवधि:ज्ञानके द्वारा आपको विपत्तिमें पड़ा, P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust

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