Book Title: Ratisarakumar Charitra
Author(s): Kashinath Jain
Publisher: Kashinath Jain

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Page 57
________________ चौथा परिच्छेद उन निरपराध पशुओंको तुम क्यों मारते हो ? अपने अङ्गोंको जो कभी धो-मांज कर साफ़ नहीं करते, जो सदा वनमें रहते और बड़े सदाचारी हैं, वे पशु मुनियोंकी भाँति विवेकी पुरुषों के लिये अवध्य हैं ; क्योंकि जो इस जन्ममें पशुओंका वध करता है, वह अगले जन्ममें उन्हीं पशुओंके द्वारा मारा जाता है। इस लिये बुद्धिमान् मनुष्य तो बध्य जीवोंको भी नहीं मारते और वैरको अपने पास भी नहीं फटकने देते। भला यह आत्मा किसकिस योनि या कुलमें नहीं गयी है ? भाई ! यह तो सब योनियों और कुलोंमें हो आयी है। * इसलिये सभी जीव एक दूसरेके बन्धुके समान हैं, फिर कौन किसका वध्य हो सकता है ? अतएव! राजन् ! तुम क्षत्रिय-धर्मकी नीतिके सौजन्यसे उत्पन्न दयाके वशमें होकर सब पशुओंकी रक्षा करो।' . . .. "राजकुमारकी ये धर्मसे भरी बातें सुन, हर्षित होकर वह पुरुष घोड़ेसे नीचे उतर पड़ा और कुमारके पैरोंपर गिरकर कहने लगा;-राजकुमार ! मैं आपका दास हूँ। यद्यपि मैने अनेक जन्तुओंका वध करके बड़ा भारी अपराध किया है, तथापि आपकेसे क्षमासागरसे यह कहनेकी मैं ज़रूरत नहीं समझता, कि आप मुझे क्षमा करें। मेरे पापोंका समूह तो आपके दर्शनोंसे ही नष्ट हो गया, इसीलिये मैं साक्षात् क्षमा नहीं मांगता; क्योंकि त्रिदोष-व्याधिवालेको औषधि देकर क्या होगा ?/मरजी ! ... न सा जाइ न सा जोनी न तं टाणं न त कुलं / ......... न जावा म मुभा जथ्थ सव्वे जीवा गन्त सो॥ : P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust

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