Book Title: Ratisarakumar Charitra
Author(s): Kashinath Jain
Publisher: Kashinath Jain

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Page 52
________________ चौथा परिच्छेद सेन और कुलासार मुनिकी शुश्रूषा करने लगे और शूर तथा वीर वनमें जाकर औषधे ले आये। जयने उन सब औषधों को कूट-पीसकर मुनिके शरीर पर लगाया। इस प्रकार दवादारू होनेसे क्रमशः मुनिका रोग दूर हो गया और वे सन्तुष्ट चित्तसे वनमें विहार करने चले गये। उनके जानेके बादही ये पाँचो मित्र भी वहाँसे चल पड़े। ... “इसके बाद सूर्यास्तके समय वे लोग एक जंगलमें आ पहुँचे। रात हो जानेके कारण उन लोगोंने वहीं विश्राम करनेका विचार किया और आपसमें यह नियम किया, कि जबतक कुमार सोते रहें। तबतक चारों मित्र बारी-बारीसे पहरा देते रहें। इस प्रकार निश्चय हो जानेपर राजकुमार सो रहे। रातके तीसरे पहर में जयके पहरेकी बारी आयी। आलस्यके मारे वह पहरेमें चूक गया और सो रहा। इसी समय दैवयोगसे उस वनमें दावाग्नि उत्पन्न हुई / उस समय आगसे जलते हुए बाँसकी फट. फटाहट सुनकर एकाएक कुमारकी नीद वैसेही टूट गयी। जैसे प्रमादमें सोया हुआ तत्वज्ञानी पुरुष लोगो के शोकमय शन्दों को सुनकर जाग पड़ता है। जाग कर कुमारने जो इधर-उधर दृष्टि फेरी,तो देखा, कि अग्नि लपटो के रूपमें अपनी जीभ लपलपाती हुई उस सारे जंगलको भस्म करनेके लिये चारो ओर नाचती फिरती है। यह विचित्र घटना देख,सव मित्र झटपट उठ खड़े हुए और वहाँसे भाग चलनेका विचार करने लगे। इसी समय दावानलने ऐसी दशा उत्पन्न कर दी, मानो वे सबके सब बन्द P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust

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