Book Title: Ratisarakumar Charitra
Author(s): Kashinath Jain
Publisher: Kashinath Jain

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Page 31
________________ दूसरा परिच्छेद आकर्षित करनेवाले नेत्र-कमलोंसे संसार -समुद्रकी शोभा बढ़ानेवाली, मुनिवरोंके जन्मसे ही प्राप्त उज्ज्वल यशको मलिन करनेवाले कामदेवके दीपकके समान तेजोमय शरीरसे अपूर्व सुन्दरता छिटकाती हुई उन तीनों कन्याओं को पास आते देख, कुमार कामसे पीड़ित हो गये और एक भिन्न प्रकारका विकार अनुभव करने लगे। इधर वे कन्याएँ, सुन्दर कान्ति-रूपी चक्रसे सुशोभित इस नरेन्द्रको देख, आश्चर्यमें पड़कर परस्पर मुस्कराकर बातें करने लगीं। वे कहने लगी,-“एँ! यह पुरुष कौन है ? कहीं हमारीभक्तिसे प्रसन्न होकर स्वयं कामदेव हो तो मन्दिरसे नहीं निकल आये और हमारी राह देख रहे हैं ? अथवा अपनी प्रेमिकाके फेरमें पड़कर कोई देवता ही कामदेवको सेवा करनेको चला आया है ? अथवा हमें वरदान देनेके लिये ही कामदेवने अपनेले अधिक सुन्दर इस नवयुवाको यहाँ पर ला रखा है।" इसी प्रकार नाना प्रकारके तर्क-वितर्क करती और कुमारकी ओर टकटकी लगा कर देखती हुई वे तीनों पालकियोंसे नीचे उतरीं। वस्त्रोंसे भली भांति शरीर ढंका रहने पर भी वे बार-बार अपने अङ्गोंको छिपानेकी चेष्टा कर रही थीं और रह-रह कर उनके पैर फिसले पड़ते थे। इसी तरह वे धीरेधीरे चलती हुई मन्दिरके मध्यभागमें आयीं। कुमारके मुखको बार-बार देखनेकी इच्छा लज्जाके मारे पूरी नहीं होती थी, इसीलिये वे कनखियोंसे उनकी ओर देखने लगीं। उस समय ठीक ऐस ही मालूम पड़ता था, मानों उनकी आँख, कानके पास P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust

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