Book Title: Ratisarakumar Charitra
Author(s): Kashinath Jain
Publisher: Kashinath Jain

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Page 29
________________ दूसरा परिच्छेद ग्रहण कर काममें लाइये।" यह सुन, प्रसन्न मनसे कुमार रतिसारने उसके हाथसे जल-पात्र लेकर ठीक उसी श्रद्धाके साथ उसको पान किया, जैसी श्रद्धासे कोई भव-भ्रमण करके थका हुआ मनुष्य भगवान् तीर्थङ्करकी अमृतभरी देशनाका पान करता है। ___ इसी समय मदमाती कोयलोंकी तरह मीठे स्वरमें गाती हुई कुछ रमयिोंणका सुरीला कण्ठ-स्वर कुमारके कानमें पड़ा। यह सुनते ही कुमारने पूछा, “यह गानेका शब्द कहाँसे आ रहा है ? उस स्त्रीने कहा, "यह श्रावस्ती नामकी नगरी है। यहाँ उन्हीं राजा कृपका राज्य है, जो राजाओंमें बड़े ही गौरव-पूर्ण और यशस्वी माने जाते हैं तथा शत्रुरूपी गजोंका संहार करनेमें सिंहके समान पराक्रम रखते हैं। उनकी कीर्ति चारों दिशाओंमें छायी हुई है। राजाके सौभाग्यमंजरी नामकी एक पुत्री है, जो मृगोंकी सी आँखवाली, सौभाग्य मंजरी और अपनी अद्भुत कान्तिसे इस पृथ्वीको जगमग करनेवाली है। जिन देवताओंने अमृत-कृपके समान उस अलौकिक सौन्दर्यको नहीं देखा, मैं तो उनके भी जीवनको व्यर्थ ही समझती हूँ। इस समय बालकपन-रूपी पहरेदारने उसके शरीरका पहरा यौवनको सौंप दिया है। राजकुमारोके ही समान रूप, गुण और शोलमें प्रशंसनीय दो सहचरियाँ सदा उनके साथ ही रहती हैं। इनमें एक मन्त्री धीरकी लड़की है और दूसरी धन्य नामक P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust

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