Book Title: Ratisarakumar Charitra
Author(s): Kashinath Jain
Publisher: Kashinath Jain

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Page 27
________________ दूसरा परिच्छेद फिर भला कौन बुद्धिमान् द्रव्यको असाध्य-साधन करनेवाला कहेगा? ज्ञानियोंने जिंस द्रव्यको अज्ञान-कृप बतलाया है, उसमें तृष्णाके मारे कौन अपनी आत्माको डाल देगा ? उसमें पड़नेपर तो फिर इसका निकलना मुश्किल हो जायेगा। बड़े-बड़े शानी और विरक्त मुनियोंने जिस ज्ञानको ग्रहण किया है, उसीके उपार्जनका प्रयत्न करना उचित है। भला, इस संसारमें ऐसा कौन है, जिसे लक्ष्मीने एक बार अपनाया और दूसरी बार छोड़ नहीं दिया हो ? लक्ष्मीमें बड़े-बड़े दोष है और उन दोषोंका निवारण ज्ञानसे ही हो सकता है। इस बातसे भला कौन ज्ञानवान् मनुष्य इनकार कर सकता है ? इसलिये बहुतसी लक्ष्मी व्यय करने पर भी यदि अमूल्य ज्ञानका लाभ हो सके, तो अवश्य ग्रहण करना चाहिये; क्योंकि ज्ञान बड़ा ही अनमोल पदार्थ है।" ___ पिताको ऐसा मुंहतोड़ जवाब देकर कुमार रतिसार चुप हो रहे। राजा मन-ही-मन क्रोधके मारे कट गये और भौंहे कमानसी टेढ़ी किये चुप्पी साधे रहे। इसके बाद राजकुमार भी वहाँसे चुपचाप उठ खड़े हुए और भरी सभामें अपना अपमान हुआ समझ कर वे उसी रातको किसी और देशमें चले जानेकी तैयारी करने लगे। इसके बाद जैसे सूर्य कमल-बृन्दको सोता छोड़ कर अस्ताचलको चला जाता है, वैसेही ने भी सबको सोते छोड़ कर घरसे बाहर निकल पड़े। वे बरा. बर घुड़सवारी आदि कसरतें किया करते थे, इसीलिये उन्हें राह चलनेकी थकावट बिलकुल ही नहीं मालूम हुई-लगातार चलते. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust

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