Book Title: Ratisarakumar Charitra
Author(s): Kashinath Jain
Publisher: Kashinath Jain

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Page 32
________________ 24 रतिसार कुमार जाकर पूछ रही हैं, कि कहीं ऐसा रूप भी होते सुना है ? क्रमशः वे भी मदन-विकारसे पीड़ित हो गयीं और उनके मुंह पर पसीना छूटने लगा। अस्तु; काम-बाणसे अकुलाती, कुमारके स्पर्श करनेके लोभसे व्याकुल होती और चित्तकी बेचैनीसे पग-पगपर ठोकरें खाती हुई वे आगे बढ़ीं। इस प्रकार मदनकी मारसे बेचैन होती हुई उन सुन्दरियोंको अपने हृदयमें पधारनेका निमंत्रण देनेके लिये कुमारने भी नील कमलकी मालाके समान अपनी दृष्टिका उपहार उन्हें बड़े प्रेमसे दिया। बड़ी-बड़ी मुश्किलोंसे कुमारकी नज़रें बचाती हुई वे तीनों सखियाँ अपने हृदय कुमारको दानकर मन्दिरके अन्दर आयीं। उस समय राजकुमारोने विरहके भयसे व्याकुल होकर अपनी सखियोंसे हँसते हुए कहा,-"प्यारी सखियो ! हम सब लड़कपनसे आजतक प्रेमके वन्धनमें बँधकर सदा एक साथ रहती चली आयीं-कभी एक दूसरीसे अलग नहीं हुई। परन्तु अब हमारे पिता न जाने हमारी शादी कहाँ-कहाँ करेंगे; क्योंकि हमारी जाति भिन्न-भिन्न हैं। फिर जब हम दूसरी-दूसरी जगह चली जायेंगी, तब हमारा मिलना कैसे हो सकेगा ? इसलिये यदि हम तीनों सदा एक साथ रहना चाहती हों, तो हमें इसी नेत्रानन्ददायक कुमारके साथ एकही संग व्याह. कर लेना चाहिये / इसीलिये मेरी राय है, कि आज रातको चुपचाप सबकी नज़र बचाकर हम यहाँ चली आवें और इसीको अपना प्रिय पति बनावें, जिसमें फिर कभी हमारा वियोग न हो। . .......... .P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust

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