Book Title: Ratisarakumar Charitra
Author(s): Kashinath Jain
Publisher: Kashinath Jain

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Page 46
________________ चौथा परिच्छेद षोंकी आत्मा चार प्रकारके.धर्मों के साथ क्रीड़ा करती है, वैसेही कुमार भी अपने इन चारों मित्रोंके साथ खेल-कूद किया करते थे। __ "एक दिन वे दयालु कुमार अपना दिल बहलानेके लिये बाग़ीचेकी ओर चले जा रहे थे। इसी समय उन्होंने एक स्थान पर शूलीके नीचे खड़ा एक पुरुष देखा, जिसके पास ही चण्डाल भी खड़ा था। कुमारने यह देखते ही उस चाण्डालसे पूछा, क्यों भाई ! इस आदमीने ऐसा कौनसा अपराध किया है, जिसके लिये इसे इतनी बड़ी सज़ा दी जा रही है ?" यह सुन उस चाण्डालने कहा,-"इसने आपकी माताके चमकीले और मूल्यवान् रनोंके आभूषण चुराये है, इसीलिये राजाने इसे शूली पर चढ़ानेका दण्ड दिया है।” कुमारने कहा-"जब इसने मेरी ही माता के गहने चुराये है, तब तो इसे मेरीही मरजीके मुताबिक सजा मिलनी चाहिये।" यह कह, उन्होंने उस आदमीको चाण्डालसे छुड़ाकर अपने साथ ले लिया और उसे इस प्रकार शिक्षा देनी आरम्भ की,-"देखो, अन्यायसे ग्रहण की हुई लक्ष्मी सर्पके मणिकी भाँति मोहसे मत्त बने हुए मनुष्योंको निश्चय ही मृत्यु देने वाली है। इसलिये मनुष्यको चाहिये, कि लक्ष्मीको आकर्षित करनेवाले मन्त्रके समान; आपत्तिको छुड़ाने वाले यत्नके समान, और धर्मके जीवित रूपके समान, न्यायमें अपनी मति सदैव लगाये रखे।” इस प्रकार शिक्षा देकर तथा बहुत से उत्तम वस्त्र आदि देकर कुमारने उस चोरको छोड़ दिया। _"एक दिन कुमार राजाके पास चले जा रहे थे, इसी समय P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust

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