Book Title: Ratisarakumar Charitra
Author(s): Kashinath Jain
Publisher: Kashinath Jain

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Page 40
________________ रतिसार कुमार हो गयीं-उन्हें सब कुछ साफ़ दिखाई देने लगा। वे यह जान कर बढ़े ही लजित हुए, कि इतनी देरतक वे आपसमें ही एक दूसरेसे लड़ रहे थे। इसके बाद मन्त्री, घोड़ेसे नीचे उतर कर. मन्दिरमें गये और कुमारके पास पहुँचकर बड़ी विनयके साथ कहने लगे,-"हे वीर-शिरोमणि! हे गम्भीर गुणनिधि ! तुम्हारे मुखचन्द्रको देखनेके लिये राजाके नेत्र चकोरकी भाँति तुम्हारी राह देख रहे हैं।" मन्त्रीकी बातका कोई जबाब न दे, कुमार तुरत ही राजाके पास जानेके लिये उठ खड़े हुए और एक अच्छेसे रथ पर सवार हो, मन्त्रीके साथ-साथ राजमहलके पास आ पहुँचे। - जिस समय कुमार राजसभामें पहुँचे, उस समय उनकी वह निराली शोभा देख, राजाने अपने मनमें विचार किया,"अहा! इस कान्तिमान् वीर पुरुषका एक बार दर्शन करने वाला मनुष्य भी धन्य और सत्पुरुषों का मान्य है। फिर जिसका यह बन्धु होगा, उसका क्या कहना है ? कामदेवके मित्रके समान इस पुरुषको जो स्त्री हृदयसे प्यार करेगी; उसका जन्म सफल हो जायेगा और फिर वह किसी दूसरेको अपना हृदय नहीं दे सकेगी।" इस प्रकार कुमारको देखते ही ध्यानमें लीन बने हुए राजाके पास आकर कुमारने बड़े आदरके . साथ मुकुट : उतार कर राजाको प्रणाम किया। उसी समय. राजाने अपनी दोनों भुझायें फैलाये हुए आसन से उठ कर कहा, "हे सुगुणपुष्पमालाके धारण करने वाले! . आओ और उत्सुकताके साथ P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust

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