Book Title: Ratisarakumar Charitra
Author(s): Kashinath Jain
Publisher: Kashinath Jain

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Page 26
________________ रतिसार कुमार और परलोकमें आनन्द देनेवाला, काम और धर्मका बीज-रूप है, उसे भला कौन बुद्धिमान् मनुष्य यों तृणकी तरह नष्ट करेगा? कला, विक्रम और बुद्धिसे भी जो काम नहीं हो सकता, वह द्रव्यसे सहजही हो जाता है। ऐसे उपयोगी द्रव्यको अपव्ययके कुएमें डालना भला कहाँकी बुद्धिमानी है ? चाहे कृपण ही क्यों न हो; पर यदि मनुष्य धनवान हो, तो बड़े-बड़े महात्मा भी उसकी खुशामद किया करते हैं। देखते नहीं हो, कि देवता भी सुवर्णपर्वतको नित्य घेरे रहते हैं ? आदमी चाहे लाख गुणी और प्रेमी क्यों न हो; पर यदि उसके पास लक्ष्मी नहीं है, तो उसके आश्रित मनुष्य भी उसे उसी तरह छोड़ देते हैं, जैसे रातके समय शोभाहीन कमलोंको भौरे छोड़ देते हैं। इसीलिये तो मनुष्य द्रव्य उपार्जन करनेकी चिन्तामें लीन रहते हैं। तुमसे मूोंके सिवा और कौन इस तरह धनको पानी फेंक सकता है ?" ... पिताकी यह फटकार सुन, पुण्य-रूपी वनमें विहार करनेवाले कोकिलकी भाँति कुमारने मीठी बोली में कहा, "पिताजी! सैकड़ों विद्वानोंमें कोई एकही सत्कवि होता है-सत्काव्य सबको करना नहीं आता। क्योंकि हीरेकी खानसे भी किसी विरले ही भाग्यवानको उत्तम हीरा मिलता है। धर्मकी उत्पत्तिका कारण श्रद्धा है। कामकी उत्पत्तिका कारण प्रेम है। चंचल लक्ष्मी तो दासीके समान है। फिर इसके लिये झानी पुरुष क्यों हाय-हाय करें? इसमें क्यों आसक्त हों ? जिसमें कला है, वीरता है, झान है-वह तो बात करते द्रव्योपार्जन कर लेता है। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust

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