Book Title: Ratisarakumar Charitra
Author(s): Kashinath Jain
Publisher: Kashinath Jain

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Page 15
________________ रतिसार कुमार था, इसलिये मैं उधरसे भो निराश ही हुआ / मेरो ओरसे जो सव व्यापारी बाहर भेजे गये थे, उनके माल-सामान चोर-डाकुओंने लूट लिये और सौदागरी मालसे लदा हुआ जो जहाज़ रवाना हुआ था, वह समुद्र में सारे सामानके साथ डूब गया! यह समाचार सुनतेही मेरे देवता कूच कर गये-मैं चारों ओर अंधेरा देखने लगा। ऋणके मारे मैं सिरसे पैर तक लद गया। एक दिन मेरा महाजन ऋणका रुपया माँगनेको आनेवाला था। उस दिन मैं इसी चिन्तामें डूबा हुआ था, कि उसके आनेपर मैं उसे क्या उत्तर दूंगा? सोचते सोचते मैंने यही निश्चय किया, कि यहाँसे चला जाऊँ / .. यही सोचकर मैं अपनी दुःख-मग्ना स्त्रीके पास आ, उससे विदा मांग, अपने निद्रामें पड़े हुए बालकोंको प्यारसे चूम, लम्बी साँस ले, घरसे बाहर निकला। उस समय राह-खर्चके नाम दुःखोंके समूह, सहायकके नाम दोनों हाथ और सवारीके नाम मेरे दोनों पैर ही थे। उस समय रात आधीसे अधिक बीत गयी थी। धीरेधीरे चलते हुए भी मैं थोड़ी ही देर में थक गया और नगरके बाहर एक स्थानपर बैठकर अपने दुर्भाग्यके सम्बन्धमें विचार करने लगा। मैंने सोचा,-'ओह! यह मेरे किस जन्मके पापोंका उदय हुआ, जो मैं इतना बड़ा सम्पत्तिशाली धनवान् होकर भी इस समय राहका भिखारी हो गया हूँ ! जो किसी दिन सैकड़ों मनुष्योंको खिला कर खाता था, आज उसे अपना ही पेट भरना पहाड़ हो, रहा है। हाय ! किसीके पापोंका उदय बारी-बारीसे होता होगा; पर मेरे तो इकट्ठे ही सब पाप फल गये। मेरा पलक मारते P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust

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