Book Title: Ratisarakumar Charitra
Author(s): Kashinath Jain
Publisher: Kashinath Jain

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Page 13
________________ - रतिसार-कुमार हाथियोंके गहनोंकी झनकार सुनकर ऐसा मालूम पड़ता था, मानों नर्तकीके समान नाचती हुई लक्ष्मीके पैरोंके घुघरू बज . रहे हों। बड़ी दूर-दूर तक मेरे सौदागरी मालके जहाज़ जाया करते थे। दुनियामें शायद ही कोई ऐसा राजा या रङ हो, जिसने कभी मुझसे ऋण नहीं लिया हो। हे राजकुमार ! मेरी बहुत बड़ी आयु इसी तरह मौजे मारते हुए कट गयी। धन. धान्य, सोना-चांदी, हीरे-मोती और जगह-ज़मीनके मारे मेरा वैभव सबके दिलों में डाह पैदा करता था। धनके साथ-हीसाथ मुझे परिवारका भी बड़ा सुख था। मेरे कई वेटे-पोते और नाती थे और सब मेरी आज्ञामें रहते थे। एक दिन मैंने रातके पिछले पहर एक सुन्दर वस्त्र आभूषणोंसे सजी हुई स्त्रीको अपने घरसे निकल कर जाते देखा। निद्राके अन्त में ऐसा दुःखस्वप्न देख, मैं उसकी शान्तिका विचार ही कर रहा था, कि इतने में मेरे घरसे साक्षात् अभाग्यके समान धुओं निकलना शुरू हुआ। इसके थोड़े ही देर बाद मेरे दुर्भाग्यको प्रकट करने वाली अग्निकी लपटें निकलने लगीं। इस प्रकार घरमें आग लग जानेके कारण मैंने अपने घरवालोंको जलनेसे बचानेका उपाय करना आरम्भ किया और धन-दौलतकी माया त्याग कर जैसे वैरागी घर छोड़ कर चले जाते हैं, वैसे ही मैं घरसे बाहर निकल पड़ा। इधर मुहल्लेके परोपकारी सज्जनोंने मेरे घरकी "जो सब चीजें आगसे बाहर निकाली थीं, उन्हें चोर और उठाई. गिरे लेकर चलते बने। मेरी सारी सम्पत्ति जल कर खाक हो P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust

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