Book Title: Ratisarakumar Charitra
Author(s): Kashinath Jain
Publisher: Kashinath Jain

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Page 21
________________ पहला परिच्छेद कर, अपनी हठीली स्त्रीको मन-ही-मन धिक्कार देता हुआ, मैं उसी श्लोकको बेच देनेके लिये तैयार हो, घरसे बाहर हुआ। यह श्लोक मेरे लिये माताके समान पवित्र है और मैं इसे कदापि नहीं बेंचता; पर क्या करूँ ? अपनी हठीली स्त्रोके आग्रहके मारे हैरान हूँ।" यह कहते-कहते उस मनुष्यका गला भर आया। आँखोंसे आँसू टपकने लगे। चेहरेसे दुःखकी छाया प्रकट होने लगी। वह मन मारे, मुँह लटकाये, चुपचाप खड़ा रह गया। तब राजकुमार रतिसारने उँगलीके इशारेसे उसे वह श्लोकवाली पोटली खोलनेकी आज्ञा दी। उसने तुरन्त ही वह पोटली खोल, उस श्लोककी पत्रिकाको बाहर निकाला और थोड़ी देर तक ध्यान मग्न रह, मन-ही-मन उस श्लोकके अर्थको हृदयङ्गम कर, ऊँचे स्वरसे कहा, “हे धीर पुरुषो! तुम लोग अपनी समस्त इन्द्रियोंका बल अपने कानों में ही बैंच लाओ; क्योंकि उनमें यह श्लोक-रूपी राजा प्रवेश करना चाहता है।" यह कह, उसने नीचे लिखा हुआ श्लोक पढ़ सुनाया, ''कार्यः सम्पदि नानन्दः पूर्व पुण्यभिदे हि सा। नैवापदि विषादस्तु साहि प्राक् पापपिष्टये // ". ___ अर्थात्-- सम्पत्ति पाकर आनन्दसे मतवाले न बन जाओ; क्योंकि सम्पत्ति पिछले पुण्योंका क्षय करनेवाली है और आपत्ति पाकर मनमें दुःख न मानो; क्योंकि इससे पिछले जन्मोंके / पाप कटते हैं।" P.P.AC.GunratnasuriM.S. Jun Gun Aaradhak Trust

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