Book Title: Ratisarakumar Charitra
Author(s): Kashinath Jain
Publisher: Kashinath Jain

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Page 23
________________ पहला परिच्छेद जाते हैं। इतना ही नहीं, कभी-कभी तो वे मारे व्याकुलताके प्राण तक देनेको तैयार हो जाते हैं। वे यह नहीं सोचते, कि विपत्ति पूर्वकृत पापोंका नाश करनेवाली है और इसे भोगे विना कुशल नहीं होने की। इसीलिये वे देह और इन्द्रियोंकी ममतामें पड़े हुए उन्हींके इशारे पर नाचा करते हैं। वे ज्ञानका रस पानकर, देह और इन्द्रियोंसे विरक्त होकर, बाहरी आधि-व्याधियोंका सहन करनेमें धैर्यका अवलम्बन नहीं करते। इस प्रकार अज्ञानकी अँधेरी रातमें पड़े हुए अनेक मनुष्य, सम्पत्ति और विपत्तिका सच्चा स्वरूप जाने बिना इस भवसागरमें डूबते रहते हैं। ऐसे लोगोंके लिये यह श्लोक गुरुके समान बोध देनेवाला है। इसलिये यह हृदयमें अङ्कित कर रखने और नित्य ध्यान करने योग्य है।" उसकी यह लम्बी चौड़ी बातें सुन, कुमारने एक बार स्वयं उस श्लोकका पाठ किया। सब लोग, उस श्लोकको सुन और उसका भाव समझकर प्रसन्न हो गये। विद्वानोंको तो और भी आनन्द आया। इसके बाद राजकुमार रतिसारने उस सुबन्धु नामक दुःख-दारिद्रय-पीड़ित मनुष्यसे कहा,-“हे सुबन्धु ! तुम मेरे किसी जन्मके बड़े भारी मित्र हो, तभी तुमने मुझे यह श्लोक सुनाया। अब तुम, हाथी, घोड़े, रत्न आदि जो कुछ चीजें तुम्हें दरकार हों, वह मुझसे मांग सकते हो। यह कह, राजकुमारने उसे तरह-तरहके मनोहर वस्त्र, आभूषण, रत्न और हाथी-घोड़े आदि देकर विदा किया और बड़ी प्रसन्नताके साथ अपने घर लौट आये। एक दीन, दुःखित और आवश्यकतामें पड़े हुए P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust

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