Book Title: Ratisarakumar Charitra
Author(s): Kashinath Jain
Publisher: Kashinath Jain

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Page 16
________________ पहला परिच्छेद सवस्व नष्ट हो गया! अव मैं क्या करूँ ? पासमें फूटी कौड़ी भी नहीं है। शरीरमें सफर करनेकी शक्ति भी नहीं है। अपने नगरमें रहूँ, तो तगादेवाले ही नाकों दम किये डालते हैं। बड़ी देरतक मैं यही सब बातें सोचता रहा, पर मैं क्या करूँ, कहाँ जाऊँ किस रास्तेको पकड़ें-यह मेरी समझ में नहीं आया। लाचार मैंने आत्महत्या करनेका विचार किया और तुरतही वहाँसे उठ कर, नगरके पास ही एक क्रीड़ा-पर्वतपर जा, उस परसे कूदकर जान देनेकी ठानी। इतने में कहींसे यह आवाज़ आयी,-रे मूढ़ ! जैसे अज्ञानी बालक हाथमें चिन्तामणि-रत्न पाकर भी योंही फेंक देता है, वैसेही तू भी इस बड़े भाग्यसे मिले हुए मनुष्य जीवनको व्यर्थ नष्ट न कर।' यह बात सुनतेही मैंने चारों ओर चकित होकर देखना शुरू किया; परन्तु कहीं कोई दिखलाई न दिया। तब मैं फिर कूदकर प्राण देनेको प्रस्तुत हुआ। इसी समय फिर न जाने किसने कहा, कि रे मूढ़ ! तू प्राण न दे। भला विकट शीत नाश करनेवाले कल्प-वृक्षको भी कोई जलाया करता है ? फिर यह बात सुन, मैंने चारों ओर दृष्टि फेरी और दो-चार पग इधर-उधर जाकर भी देखा ; पर कहीं कोई नज़र न आया। तब मैंने इसे अपने मनका कोरा भ्रमही समझा और फिर कूदकर जान देनेको तैयार हुआ। इसीसमय फिर आवाज़ आयी, 'रे मूर्ख ! दुःखकी आँचसे घबराकर तू इन अमूल्य प्राणों को क्यों नष्ट करता है ? भला ऐसा भी कोई मूर्ख होगा, जो राहकी मिट्टी पर इस आशयसे अमृतका छिड़काव करे, कि आँखोंमें धूल न P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust

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