Book Title: Ratisarakumar Charitra
Author(s): Kashinath Jain
Publisher: Kashinath Jain

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Page 17
________________ रतिसार कुमार पड़े इस प्रकार बार-बार किसीके रोक-थाम करनेपर भी मैं अन्तमें कूद ही पड़ा; पर उसी समय इतने ज़ोरकी आँधी आयो, कि मैं उसके झोंकेमें पड़कर नीचे गिरनेके बदले उसी जगह गिर कर मूर्छित हो गया। थोड़ी देर बाद जब मेरी बेहोशी दूर हुई, तब मैंने अपनेको उसी पर्वतपर खड़ा देखा और एक ओर एक मुनि बैठे दिखलाई दिये। यह देख, मैंने सोचा,-"कहीं यह स्वप्न तो नहीं है ? मैं भ्रान्तिमें तो नहीं पड़ गया हूँ ?" मैं आश्चर्यमें पड़कर यहीसोच रहा था, कि दयासागर मुनिने कहा, 'मैंने तुझे बार-बार मना किया, तो भी तू अपनी जान देनेको तैयार ही हो गया ? क्या दुःखोंसे बचनेका उपाय मृत्युही है ? नहीं / सुखदुःख तो आत्माके साथ रहते हैं। पूर्व जन्मके कर्मोंके उदयसेही मनुष्य कभी दुःख और कभी सुख पाता है। क्या जान देनेसे तेरे कर्मों का निवारण हो जायगा ? नहीं, इससे तो उलटे और भी नथे कर्मका सञ्चय होगा।' मुनिकी यह बात सुनकर मैं सोचविचारमें पड़ गया। इसी समय एक श्लोक सुनाकर वे मुनि महाराज आकाशकी ओर चले गये। यह देख, मैंने सोचा, कि मैं बड़ा ही भाग्यवान् था, जो मझे उपदेश देनेके लिये ये आकाशगामी मुनि इस रातके समय इस पर्वतपर आ पहुंचे थे। सच ही कहा है, कि साधु-महात्माओंका सहज स्वभाष परोपकार करना ही है। इन्होंने मुझे आज इस पर्वतसे गिरकर मरनेसे बचाया और यह श्लोक सुनाकर मेरे चित्तसे शोक-दुःखको दूर कर दिया। मन-ही-मन इसी बातका विचार करते हुए मैं, करुणासिन्धु मुनि P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust

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