Book Title: Ratisarakumar Charitra
Author(s): Kashinath Jain
Publisher: Kashinath Jain

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Page 18
________________ पहला परिच्छेद mmsirmomentummmmm के चरण-कमलोंसे पवित्रकी हुई उस भूमिको बारम्बार प्रणाम कर, उसी श्लोक-रत्नको हृदय में धारणकर, अपने दुःखके बोझ. को हलका करने लगा। तदनन्तर रातके पिछले पहर मैं जल्दीजल्दी पैर बढ़ाता हुआ अपने घर आया। उसी समयसे मै विपत्तिमें भी सुख मानने लगा। चित्तमें पूरी शान्ति आ गयी। इसके बाद कुछ उदार लहनदारोंने मुझे हर तरहले लाचार देख, अपना रुपया छोड़ दिया और तगादा करना बन्द कर दिया / इधर कुछ सजनोंने, जिन्होंने मुझसे रुपया उधार लिया था, आप ही आकर मेरा पावना चुका दिया। बस, मेरे घरवालोंके खानेपीनेका सामान हो गया और मैंने वही श्लोक सुनाकर अपनी स्त्रीको भी अपनी ही तरह दुःखमें सुख माननेकी शिक्षा दी। हालमें मेरी स्त्रीके भाईका विवाह होनेवाला है। मेरी स्त्रीने वहाँ जानेके लिये उत्सुक हो, मुझसे बड़ी विनयके साथ कहा,'स्वामी! मेरे बदनपर एक भी गहना नहीं है, पहननेको अच्छा सा कपड़ा भी नहीं है, सवारीका खर्च भी नहीं है और नेग-जोगमें देने योग्य धन भी मेरे पास नहीं है। इसलिये मैं वहाँ कैसे जाऊँ? मेरी बहनें वहाँ सुन्दर शृङ्गार किये, अच्छे-भले गहने-कपड़े पहने, उत्तम वाहनों पर सवार होकर पहुंचेंगी और तरह-तरहको चीजें वहाँ देनेके लिये ले जायेंगी। उनके सामने मैं भला इस हीन अवस्थामें कैसे जाऊँगी ? अतएव तुम चाहे जो कुछ बेंचकर मेरे मानकी रक्षा करो; क्योंकि बड़ोंका मान प्राणसे भी बढ़कर होता है। यदि इस समय मेरा मान न रहा,तो मेरी मृत्युही SRPROPRITTER COM P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust

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