Book Title: Ratisarakumar Charitra
Author(s): Kashinath Jain
Publisher: Kashinath Jain

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Page 14
________________ पहला परिच्छेद गयी। इस प्रकार अपना सर्वस्व जल जाते देखकर मुझे मारे दुःखके मूर्छा आ गयी। लोग मेरे घर-बारकी चिन्ता छोड़, मेरी ही सेवा-सुश्रूषामें लग गये। जव लोगोंके उपचारसे मेरी मूर्छा टूटी, तब मैंने देखा, कि मेरा घर और सारी सम्पत्ति भस्मीभूत हो गयी है। मेरे बाल-बच्चों के रहने का स्थान भी नहीं रह गया! मैं इसी सोच-विचारमें पड़ा था, कि लोग आ-आ कर मुझे ढाढ़स बंधाने लगे और रह-रह कर यही कहने लगे, कि तुम बड़े भाग्यवान् हो, इसीलिये इस भयङ्कर अग्नि में तुम्हारे किसी कुटुम्बवाले प्राणीके प्राण नहीं गये। इसके बाद जब आग बुझ गयी, तब जो सब सोने चाँदीकी चीजें गलकर पिण्डाकार हो गयी थीं, उन्हें मेरे लहनदार व्यापारियोंने थोड़ेथोड़े दामोंमें खरीद लिया। मेरे काग़ज़-पत्र, बही-खाते जलकर राख हो गये थे, इसलिये जिनके यहाँ मेरा पावना था, उन्होंने बार-बार कहनेपर भी मुझे धेला नहीं दिया। घरमें मैंने ज़मीनके अन्दर धन गाड़ रखा था। वहां जाकर मैंने देखा, तो मेरे दुर्भाग्यकी लताओंके समान साँप बैठे नजर आये। लाचार, मैंने सोचा, कि तब तक यहाँके धनवानोंसे ऋण लेकर काम चलाऊँ, जबतक मेरे बाहरके व्यापारियोंके यहाँसे धन नहीं आ जाता। उस समय मेरा बहुतसा माल 'देसावर' गया हुआ था और मेरी ओरसे अनेक स्थानों में लोग व्यापारके निमित्त गये हुए थे। मुझे उन लोगोंके यहाँसे धन प्राप्त होनेकी आशा थी। परन्तु उस समय मेरे भाग्यका सितारा एकबारगी फिरा हुआ था-विधाता वाम हो गया P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust

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