________________
( ४ )
श्री जिनलाभसूरि और श्री जिनचन्द्रसूरि के साथ रहे थे । संवत् १८४३ में आप पूर्व प्रान्त में पधारे और वहां के पवित्र तीर्थों की यात्रा की एवं धर्म प्रचार किया । वहां आपके उपदेश से कई नवीन प्रासाद बने थे । कइयों पर स्वर्ण के दंड-ध्वजकलशादि चढाये गये थे । सम्वत् १८४८ में पटना में सुदर्शन श्रेष्ठि के देहरे के समीप ( कोशा वेश्या की) जगह २०० ) में जमीदार से खरीद को हुई जगह में स्थूलभद्रजी को देहरी भी आपके उपदेश से बनी थी। और आपने ही उसकी प्रतिष्ठा को थी । सम्वत् १८५० में बोकानेर चौमासा किया। सम्वत् १८५१ में जैसलमेर चतुर्मास किया और वहीं माघ सुदिप को आपका स्वर्गवास हुप्रा 1 आपका रचित 'विशेष संग्रह संक्षेप' व कई स्तवनादि और कई लिखित प्रतियां बीकानेर के ज्ञान भंडारों में प्राप्त हैं ।
जैसलमेर में 'श्री अमृतधर्म स्मृति-शाला' है । उसमें जिनभक्ति सूरि, प्रोतिसागरजी व अमृतवर्मजी की पादुकाएं हैं। अमृतधर्मजी सम्बन्धी क्षमा कल्यारण रचित व लिखित 'अष्टक' वाला लेख विशेष महत्व का है ( देखिये हमारा 'बीकानेर जेन लेख संग्रह' लेखांक २८४१) उपरोक्त अष्टक हमारे ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह के पृ. ३०७ पर भी छप चुका है ।
विद्या गुरु
आपका विद्याध्ययन उपाध्याय राजसोम और उपाध्याय रूपचन्द ( रामविजयजी) के तत्वावधान में हुआ था । उस समय ये दोनों पाठक बड़े प्रख्यात विद्वान थे इनका यथा ज्ञात संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है
Aho ! Shrutgyanam