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प्राक्कथन
Vऔर अब प्रस्तुत करना आवश्यक है, संक्षेप में भी सही, स्वयं परम अंतर्दृष्टा प्रज्ञापुरुष पूज्य पंडितजी के १६ से लेकर ९७ वर्ष तक के ८१ वर्षों के विशालविराट-अविराम सत्पुरुषार्थ पूर्ण, उदाहरण रूप महाजीवन का एक संक्षिप्त झांकी रूप परिदर्शन।
पंडितजी के समग्र जीवन को देखते हैं तो दृष्टिगत और प्रतिबिंबित होता है भगवान महावीर के अप्रमत्त जीवन का, श्रीमद् राजचंद्रजी के 'अप्रमाद योग' का सत्पुरुषार्थ, सतत सजग परम पुरुषार्थ, प्रतिकूलताओं के पहाड़ों के सामने भी घोरातिघोर पुरुषार्थ ।
८ दिसम्बर १८८० को गुजरात-सौराष्ट्र के सुरेन्द्रनगर निकट के लीमली गाँव में देहजन्म पाये हुए सुखलालजी प्रारम्भ से ही जिज्ञासा के गुण से युक्त थे, परंतु १६ वर्ष की आयु तक जब चेचक की बीमारी में उनकी नेत्रज्योति चली गई, विद्याभ्यास में अधिक दक्ष नहीं हो पाए थे। कारण था पिता एवं परिवार की उन्हें अपने व्यापार में जोड़ देने की इच्छा। किशोर सुखलाल को पितृभक्ति वश प्रथम उसे उठाना तो पड़ा, परंतु बाद में अपने अदम्य संकल्पबल से और अचानक व्याप्त नेत्रांधकार की घोर विपदा के बीच भी अपने प्रबल पुरुषार्थ-पूर्वक अपनी उस जन्मजात जिज्ञासा एवं विद्यापिपासा को चरितार्थ भी कर सके।
वास्तव में विपरीत प्रतिकूल परिस्थितियों को भी उन्होंने अपना यह पुरुषार्थ-अप्रमत्त पुरुषार्थ का गुण, 'पाँच समवाय कारणों' के पूर्वकर्म, काल, स्वभाव एवं नियति के शेष चार कारणों को लांघकर विकसित किया था। अन्यथा अंकविद्या के अनुसार उनकी अंग्रेजी जन्मतिथि का ८ (आठ) का अंक घातक (fatal) माना गया है। परंतु साथ ही भारतीय ज्योतिर्विज्ञान-विद्यानुसार उनकी यह मार्गशीर्ष शुक्ला पंचमी की 'पूर्णतिथि' ज्ञान-सम्पदा को और किसी भी स्वनिर्धारित कार्यक्षेत्र में संपन्न कार्य को पूर्णता प्रदान करानेवाली शुभतिथि भी थी। पंडितजी ने, इस वर्तमान काल के असामान्य, उलटे प्रवाहवत् चलने के उपर्युक्त महापुरुषार्थ को अपनाकर, इस बात को सिद्ध कर दिखलाया। वर्तमान में जिस का शायद ही कोई जोड़, समांतर (parallel) दृष्टांत मिल सके, ऐसी उनकी पुरुषार्थसिद्धि की यह जीवनगाथा, महारथी कर्ण एवं महामानव भगवान महावीर की पुरुषार्थ-प्रधानता की स्मृति दिलाती है। “दैवायत्तं तु कुले जन्मः मदायत्तं तु