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श्रीमद् राजचंद्र - एक समालोचना
गाँधीजी उनमें एक अपवादरूप थे। ज्ञातिभोजन, ज्ञाति के बाहर भोजन, भक्ष्याभक्ष्यविचार, इसी में किस सीमा तक छूट ली जा सकती है, इत्यादि प्रश्न गाँधीजी की वकीलदृष्टि एवं विदेश में आ पड़ी - उपस्थित परिस्थिति के कारण थे। जैनों के प्रश्न भगवान महावीर के समय में किये जा रहे प्रश्नों के प्रायः समान ही हैं। ऐसा लगता है कि जैनों के मानस की परिस्थिति कुछ वैसी ही आज तक चली आ रही है। .
अंक ५३८ वाला पत्र किसी जैन जिज्ञासु के प्रश्न के उत्तर में लिखा गया है। यह पत्र जैन तत्त्वज्ञान का अध्ययन करनेवाले व्यक्ति की रुचि को पुष्ट करे ऐसा है। उसमें नियत स्थान से ही संबंधित इन्द्रियानुभव कैसे होता है तथा इन्द्रियाँ किसी विशेष परिस्थिति में ही काम कैसे करती हैं उसका बहुत ही स्पष्ट समाधान उन्होंने दिया है - जैसा कि सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक आदि में मिलता है।
__ अंक ६३३ वाला पत्र जिसमें आश्रमों के क्रमानुसार जीवन जीना चाहिए या कभी भी उसका त्याग किया जा सकता है इस प्रश्न की चर्चा की है और जिसका कुछ निर्देश मैंने पहले भी किया है वह पत्र भी एक गंभीर विचार की चर्चा करनेवाला होने के कारण विशेष रूप से सब का ध्यान आकर्षित करता है।
विशिष्ट कृतियों के तृतीय विभाग में अंक ७०७-८ वाला लेख हम प्रथम लेंगे। यह शायद स्वचिंतेनजन्य लेखन है। बीमारी की अवस्था में औषधोपचार करना या नहीं यह विचार जैन समाज में विशेष कर के जिनकल्प भावना के कारण आया है। इस विषय पर श्रीमद् ने इस लेख में अच्छा प्रकाश डाला है तथा गृहस्थ तथा साधु दोनों के संबंध में पूर्ण अनेकांत दृष्टि अपनाई है, जो वास्तविक है।
औषधि तैयार करने में या लेने में अगर पापदृष्टि है तो उसका फल भी औषधि की तरह अनिवार्य है इस बात का विवेचन उन्होंने मार्मिक ढंग से किया है । औषधि के द्वारा रोग का शमन किस प्रकार हो? क्यों कि रोग का कारण तो कर्म है और कर्म का प्रभाव हो तब तक बाह्य औषधि क्या कर सकती है? इस कर्म दृष्टि के विचार का उन्होंने सुंदर जवाब दिया है।
इन लेखों में श्रीमद्जी ने तीन अंशों को स्पर्श किया हो ऐसा लगता है: १.रोग कर्मजनित है तो उस कर्म का प्रभाव चालू हो तब तक औषधोपचार किस काम का? यह एक प्रश्न है। २.रोगजनक कर्म औषध निवर्त्य जाति का है या अन्य प्रकार