Book Title: Pragna Sanchayan
Author(s): Pratap J Tolia
Publisher: Jina Bharati

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Page 156
________________ प्रज्ञा संचयन 1 धर्मचेतना के मुख्य दो लक्षण हैं जो सभी धर्म-संप्रदायों में व्यक्त होते हैं । भले ही उस आविर्भाव में तारतम्य हो । पहला लक्षण है, अन्य का भला करना और दूसरा लक्षण है अन्य का बुरा न करना । ये विधि-निषेधरूप या हकार-नकार रूप साथ ही साथ चलते हैं । एक के सिवा दूसरे का संभव नहीं । जैसे-जैसे धर्मचेतना का विशेष और उत्कट स्पन्दन वैसे-वैसे ये दोनों विधि निषेध रूप भी अधिकाधिक सक्रिय होते हैं । जैन - परम्परा की ऐतिहासिक भूमिका को हम देखते हैं तो मालूम पड़ता है कि उसके इतिहास काल से ही धर्मचेतना के उक्त दोनो लक्षण असाधारण रूप में पाये जाते हैं । जैन - परंपरा का ऐतिहासिक पुरावा कहता है कि सब का अर्थात् प्राणीमात्र का - जिसमें मनुष्य, पशु-पक्षी के अलावा सूक्ष्म कीट जंतु तक का समावेश हो जाता है - सब तरह से भला कर । इसी तरह प्राणीमात्र को किसी भी प्रकार से तकलीफ न दो। यह पुरावा कहता है कि जैन परंपरागत धर्मचेतना की भूमिका प्राथमिक नहीं है । मनुष्य जाति के द्वारा धर्मचेतना का जो क्रमिक विकास हुआ है उसका परिपक्व रूप उस भूमिका में देखा जाता है। ऐसे परिपक्व विचार का श्रेय ऐतिहासिक दृष्टि से भगवान् महावीर को तो अवश्य है ही । 1 ११८ कोई भी सत्पुरुषार्थी और सूक्ष्मदर्शी धर्म पुरुष अपने जीवन में धर्मचेतना का कितना ही स्पंदन क्यों न करे पर वह प्रकट होता हैं सामयिक और देशकालिक आवश्यकताओं की पूर्ति के द्वारा । हम इतिहास से जानते हैं कि महावीर ने सब का भला करना और किसी को तकलीफ न देना इन दो धर्मचेतना के रूपों को अपने जीवन में ठीक-ठीक प्रकट किया । प्रकटीकरण सामयिक जरूरतों के अनुसार मर्यादित रहा । मनुष्य जाति की उस समय और उस देश की निर्बलता, जातिभेद में, छूआछूत में, स्त्री की लाचारी में और यज्ञीय हिंसा में थी । महावीर ने इन्हीं निर्बलताओं का सामना किया। क्योंकि उनकी धर्मचेतना अपने आस-पास प्रवृत्त अन्याय को सह न सकती थी । इसी करुणावृत्ति ने उन्हें अपरिग्रही बनाया । अपरिग्रह भी ऐसा कि जिसमें न घर-बार और न वस्त्रपात्र । इसी करुणावृत्ति ने उन्हें दलित पतित का उद्धार करने को प्रेरित किया । यह तो हुआ महावीर की धर्मचेतना का स्पंदन । पर उनके बाद यह स्पंदन ज़रूर मंद हुआ और धर्मचेतना का पोषक धर्म कलेवर बहुत बढ़ते बढ़ते उस कलेवर का कद और वजन इतना बढ़ा कि कलेवर की पुष्टि और वृद्धि के साथ ही चेतना का स्पंदन मंद होने लगा। जैसे पानी सुखते ही या {

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