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गांधीजी की जैन धर्म को देन
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हुए भी कोई तेजस्विता प्रकट कर न सकते थे । उन लोगों का व्रत - पालन केवल रूढ़िधर्म- - सा दीखता था। मानों उनमें भावप्राण रहा ही न हो। गांधीजी ने इन्हीं व्रतों
ऐसा प्राण फूंका कि आज कोई इनके मखौल का साहस नहीं कर सकता । गांधीजी के उपवास के प्रति दुनिया-भर का आदर है। उनके रात्रि भोजन त्याग और इने-गिने खाद्य पेय के नियम को आरोग्य और सुभीते की दृष्टि से भी लोग उपादेय समझते हैं । हम इस तरह की अनेक बातें देख सकते हैं जो परम्परा से जैन समाज में चिरकाल से चली आती रहने पर भी तेजोहीन-सी दीखती थी; पर अब गांधीजी के जीवन ने उन्हें आदरास्पद बना दिया है ।
जैन परंपरा के एक नहीं अनेक सुसंस्कार जो सुप्त या मूर्च्छित पड़े थे उनकी गांधीजी की धर्म चेतना ने स्पन्दित किया, गतिशील किया और विकसित भी किया। यही कारण है कि अपेक्षाकृत इस छोटे से समाज ने भी अन्य समाजों की अपेक्षा अधिकसंख्यक सेवाभावी स्त्री-पुरुषों को राष्ट्र के चरणों पर अर्पित किया है। जिसमें बूढ़े - जवान स्त्री-पुरुष, होनहार तरुण-तरुणी और भिक्षु वर्ग का भी समावेश होता है ।
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मानवता के विशाल अर्थ में तो जैन समाज अन्य समाजों से अलग नहीं । फिर भी उसके परम्परागत संस्कार अमुक अंश में इतर समाजों से जुदे भी हैं । ये संस्कार मात्र धर्मकलेवर थे; धर्मचेतना की भूमिका को छोड़ बैठे थे । यों तो गांधीजी ने विश्व भर के समस्त संप्रदायों की धर्म चेतना को उत्प्राणित किया है; पर साम्प्रदायिक दृष्टि से देखें तो जैन समाज को मानना चाहिए कि उनके प्रति गांधीजी की बहुत और अनेकविध देन है । क्योंकि गांधीजी की देन के कारण ही अब जैन समाज अहिंसा, स्त्री-समानता, वर्ग समानता, निवृत्ति और अनेकान्त दृष्टि इत्यादि अपने विरासतगत पुराने सिद्धान्तों को क्रियाशील और सार्थक साबित कर सकता
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है।
जैन परंपरा में 'ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै' जैसे सर्वधर्म समन्वयकारी अनेक उद्गार मौजूद थे। पर आमतौर से उसकी धर्मविधि और प्रार्थना बिलकुल सांप्रदायिक बन गई थी। उसका चौका इतना छोटा बन गया था कि उसमें उक्त उद्गार के अनुरूप सब संप्रदायों का समावेश दुःसंभव हो गया था । पर गांधीजी की धर्मचेतना ऐसी जागरित हुई कि धर्मो की बाड़ा बँदी का स्थान रहा