Book Title: Pragna Sanchayan
Author(s): Pratap J Tolia
Publisher: Jina Bharati

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Page 174
________________ प्रज्ञा संचयन .. न कुछ लोग अवश्य मिल जायेंगे । इन कार्यकरों में अनेक विभूतिवत् तेजस्वी कार्यकर भी हैं । गाँधीजी की मृत्यु से अब ऐसे कार्यकरों की संख्या में वृद्धि तो होगी ही, साथ ही ये सब अधिक शुद्ध हो कर कार्यबल प्राप्त करेंगे, क्यों कि अब उन्हें अपने कंधों पर आये हुए उत्तरदायित्व का पूर्ण ज्ञान हो रहा है । जो मुस्लिम बंधु अपने घर को संवारने के बाद दूर बैठे बैठे या पाकिस्तान जा कर समझानेवाले थे उन्हें भी यह समझ में आ रहा है कि गाँधीजी जो कहते थे वही सच है और मुस्लिम लीग जो धर्म के नाम पर धर्माघता को उकसा-फैला रहीथी, उसमें कोई तथ्य नहीं है। इस प्रकार, अगर हम सोचें तो गाँधीजी का जीवन जितना महान और कल्याणकारी था, उतनी ही महान और कल्याणकारी उनकी मृत्यु भी है इस बात में कोई संदेह नहीं है। __गाँधीजी गुरुत्वाकर्षण के नियम के समान थे । अपने संपूर्ण जीवन में उन्होंने परस्पर विरोधी ऐसे उन विविध परिबलों को एक ही उद्देश की सिद्धि हेतु जोड़ कर, एक ही श्रृंखला में बाँध कर रखने में असाधारण सफलता प्राप्त की है । राज्यकर्ता, मठाधिपति, पूंजीपति एवं, उच्चत्त्वाभिमानी लोगों के वर्ग पर साम्यवाद की जो आक्रमक - संहारक लहर आ रही थी उसका निवारण अहिंसा की सहायता से करने हेतु तथा उस लहर के केवल प्राणदायक तत्त्व को प्रतिष्ठित करने हेतु गाँधीजी ने जीवन के अंतिम क्षण तक अपनी कार्य साधना द्वारा प्रयत्न किया । वे सब को निर्भय बनाने का ही प्रयास करते । भय के जिन कारणों से जो भी वर्ग डरा हुआ था, त्रस्त था, उस वर्ग को उस भय के कारणों को ठोकर मार कर निर्भय बनने के लिए समझाते । राज्यकर्ताओं को ट्रस्टी बन कर राज्य करने को कहते, तो पूंजीपति तथा उद्योगपतियों को भी ट्रस्टी बन कर लोकहितार्थ उद्योग-व्यापार का विकास करने की सलाह देते। किसी धर्मपंथ के दीपक में तेज न था क्यों कि उनमें तेल एवं बाती रहे ही नहीं थे । गाँधीजी ने अपने आचरण के द्वारा हर एक धर्मपंथ के दीपक में तेल और बाती डालने का कार्य किया और प्रत्येक समझदार धार्मिक व्यक्ति यह मानने लगा कि हमारा पंथ भी जीवंत है और उसमें भी कुछ रहस्य है । उच्च जाति के लोग अपनी उच्च जाति के अभिमान के कारण जिन्हें कभी जोड़ा न जा सके ऐसे खंडों में विभक्त हो गये थे और दलितवर्ग तो मानवता की कक्षा से भी बाहर हो गया था। गांधीजी ने ऐसे वर्ण-धर्म का आचरण कर के दिखाया जिसके परिणामस्वरूप अपनी उच्च जाति का अभिमान करनेवाले लोगों का उच्चत्वाभिमान स्वयमेव गलने

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