________________ प्रज्ञा संचयन इसी पुस्तक से चुने हुए कुछ संचयित मोती श्री आत्मसिद्धिशास्त्र - श्रीमद् राजचन्द्रजी की आत्मोपनिषद् जिस आयु में और जितने अल्प समय में श्री राजचंद्र ने ‘आत्मसिद्धि' में स्वयं आत्मसात् किया हुआ ज्ञान संजोया है उसे सोचता हूँ तब मेरा मस्तक भक्तिभाव से झुक पड़ता है। उतना ही नहीं, परन्तु मुझे प्रतीत होता है कि उन्होंने आध्यात्मिक मुमुक्षु को दिया हुआ उपहार यह तो शत शत विद्वानों ने प्रदान किये हुए साहित्यिक ग्रंथराशि के उपहार से विशेष मूल्यवान है। अपने अपने पक्ष की और मंतव्य की सिद्धि के हेतु अनेक सिद्धिग्रंथ शताधिक वर्षोंसे रचित होते आये हैं / 'सर्वार्थसिद्धि' केवल जैन आचार्यों ने ही नहीं, परंतु जैनेतर आचार्यों ने भी अपने अपने संप्रदाय पर लिखी है / ‘ब्राह्मसिद्धि', 'अद्वैतसिद्धि' आदि वेदांत विषयक ग्रंथ सुविदित हैं। 'नैष्कर्म्य सिद्धि', 'ईश्वरसिद्धि' ये भी प्रसिद्ध हैं / / 'सर्वज्ञसिद्धि' जैन, बौद्ध आदि अनेक परंपराओं में लिखी गई है / अकलंक के 'सिद्धि विनिश्चय' के उपरांत आचार्य शिवस्वामी रचित 'सिद्धि विनिश्चय' के अस्तित्त्व का प्रमाण अभी प्राप्त हुआ है। ऐसे विनिश्चय ग्रंथों में अपने अपने अभिप्रेत हों ऐसे अनेक विषयों की सिद्धि कही गई है। परंतु सारी सिद्धियों। के साथ जब श्री राजचन्द्र की आत्मसिद्धि' की तुलना करता हूँ तब सिद्धि शब्दरूप समानता होते हुए भी उसके प्रेरक दृष्टिबिन्दु में महती दूरी दिखाई देती है। अहिंसक संस्कृति, अहिंसा और जैन परम्परा मुख्यतया चार विद्याएँ जैन परंपरा में फलित हुईं हैं - (1) आत्मविद्या (2) कर्मविद्या (3) चरित्रविद्या और (4) लोकविद्या / इसी तरह अनेकांत दृष्टि के द्वारा मुख्यतया श्रुत विद्या और प्रमाण विद्या का निर्माण व पोषण हुआ है। इस प्रकार अहिंसा, अनेकांत और तन्मूलक विद्याएँ ही जैन धर्म का प्राण हैं। जिसपर आगे संक्षेप में विचार किया जाता है / प्रत्येक आत्मा चाहे वह पृथ्वीगत, जलगत या / वनस्पतिगत हो या कीट-पतंग पशु-पक्षी रूप हो या मानव रूप हो यह सब तात्विक दृष्टि से समान है।। ऋतंभरा प्रज्ञा और महात्मा गाँधीजी वैसे तो सच्चे कवियों, लेखकों, कलाकारों तथा संशोधकों में किसी न किसी प्रकार की प्रज्ञा होती ही है; | परंतु योगशास्त्र में जिसे 'ऋतंभरा' कहा जाता है उस प्रकार की प्रज्ञा प्रज्ञावान माने जानेवाले वर्ग में भी। महद् अंश में होती ही नहीं है / ऋतंभरा प्रज्ञा की विशिष्टता यह है कि वह सत्य के अंश या असत्य की छाया को भी सहन नहीं कर सकती है / जहाँ कहीं असत्य, अप्रामाणिकता या अन्याय दिखाई देता है। वहाँ वह प्रज्ञा पूर्ण रूप से प्रज्वलित हो उठती है - सुलग उठती है और उस अन्याय को मिटा देने के दृढ़ संकल्प में ही परिणत होती है / बापू की प्रत्येक प्रवृत्ति उनकी ऋतंभरा प्रज्ञा का प्रमाण है और उसी कारण से, उनकी प्रज्ञा को भी महाप्रज्ञा के रूप में स्वीकार करना पड़ता है।। जिनभारती - वर्धमान भारती इन्टरनेशनल फाउन्डेशन प्रभात काम्पलेक्स, के.जी. रोड़, बेंगलोर - 560 009 दूरभाष: 080-2666 7882 / 6595 3440 ISBN 81-901341-11