Book Title: Pragna Sanchayan
Author(s): Pratap J Tolia
Publisher: Jina Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 169
________________ दोनों कल्याणकारी : जीवन और मृत्यु - १३१ , संवारा है, उनको उन्नत बनाया है । इस तथ्य को हमने जितना जाना और समझा है, भावि पीढ़ी उसे और अधिक जान और समझ सकेगी। प्रकृति का तत्त्व ही ऐसा है कि उसका लोलक केवल एक ही दिशा में स्थिर नहीं रहता । जब वह किसी एक छोर की ओर झुकता है, तब उसके ठीक सामने की दिशा में उसके आंदोलन शुरु होते हैं । गांधीजी ने दुनिया को उलझन में डालनेवाले जटिल प्रश्नों का सरल मार्ग से हल ढूंढने का उपाय सब के समक्ष प्रस्तुत किया। आज तक जो दुनिया 'विष का औषध विष ही है' ऐसे सूत्र में मानती थी, कुटिलता का प्रत्युत्तर कुटिलता से ही दिया जाना चाहि ऐसा सोचती थी और उसी के अनुसार जीवन बीताती थी और फिर भी कोई योग्य-शाश्वत हल ढूँढ नहीं सकती थी, उस दुनिया को गांधीजी ने एक नया मार्ग दिखाया कि विष का सच्चा और शाश्वत औषध अमृत ही है तथा कुटिलता के निवारण का सरल एवं सही इलाज सरल जीवन ही है । गांधीजी का यह कथन नया तो नहीं था, परंतु उसका सर्वांगीण व्यापक आचरण एक नई बात थी। उनका वह नवजीवन पारमार्थिक सत्य को चाहे कितना ही स्पर्श करनेवाला था, उसके द्वारा सभी जटिल समस्याओं का चाहे कितना ही सरल हल निकालना संभव था, फिर भी उसे समझ सके, उसे आत्मसात् कर सके ऐसी मानव समाज की भूमिका तैयार नहीं थी। गांधीजी ने समाज के कोने कोने तक जाकर लोगों की सद्वद्धि को जागृत करने के हेतु भगीरथ प्रयत्न किया । परिणामस्वरूप लाखों मनुष्य उनके कथन को समझने के लिए प्रयत्नशील हुए और यथा संभव उनकी जीवनशैली का अनुसरण करने के लिए भी प्रयत्नशील हुए, परंतु समाज का एक बड़ा हिस्सा जैसा था वैसा ही रहा और गांधीजी के इस नवजीवनमय संदेश की तीव्रता तथा विशेष प्रचार के साथ साथ उसमें भी वृद्धि होती गई जो गांधीजी के संदेश का स्वीकार न कर सके, यही नहीं, इस वर्गको वह संदेश नितांत घातक एवं अव्यवहार्थ लगा। जो लोग गांधीजी के संदेश को - नवजीवनसंदेश को श्रद्धापूर्वक सुनते थे तथा यथाशक्ति तदनुसार जीवन जीना चाहते थे उनके मन में भी कई बार गांधीजी के पारमार्थिक सिद्धान्तों के विषय में शंका उत्पन्न होती और उन्हें समाधान न मिलता । ऐसा भी एक वर्ग विकसित होता गया जो गांधीजी को सुनने का मौका कभी खोने को तैयार न था फिर भी मन में दृढ़ता पूर्वक यही बात बिठाते रहे कि वे तो संत रहे, व्यवहार में उनकी बात चल नहीं सकती। लेकिन इससे भी अधिक विशाल वर्ग एक ऐसा वर्ग भी निर्मित होता गया जिसे गांधीजी के पारमार्थिक सत्य के सिद्धांत तत्त्वतः तो स्वीकार्य थे, परंतु जीवन के लिए उन्हें पूर्णतः अव्यवहार्य

Loading...

Page Navigation
1 ... 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182