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प्रज्ञा संचयन ही नहीं । गांधीजी की प्रार्थना जिस जैन ने देखी सुनी हो वह कृतज्ञतापर्वक बिनाकबूल किये रह नही सकता कि 'ब्रह्मा वा विष्णुर्वा' की उदात्त भावना या 'राम कहो रहिमान कहो की अभेद भावना जो जैन परम्परा में मात्र साहित्यिक वस्तु बन गई थी; उसे गांधीजी ने और विकसित रूप में सजीव
और शाश्वत किया। ___हम गांधीजी की देन को एक-एक करके न तो गिना सकते हैं और न ऐसा भी कर सकते हैं कि गांधीजी की अमुक देन तो मात्र जैन समाज के प्रति ही है और अन्य समाज के प्रति नहीं । वर्षा होती है तब क्षेत्रभेद नहीं देखती । सूर्य चन्द्र प्रकाश फैकते हैं तब भी स्थान या व्यक्ति का भेद नहीं करते । तो भी जिसके घटे में पानी आया
और जिसने प्रकाश का सुख अनुभव किया, वह तो लौकिक भाषा में यही कहेगा कि वर्षा या चन्द्र सूर्य ने मेरे पर इतना उपकार किया। इसी न्याय से इस जगह गांधीजी की देन का उल्लेख है, न कि उस देन की मर्यादा का।
गांधीजी के प्रति अपने ऋण को अंश से भी तभी अदा कर सकते हैं जब उनके निर्दिष्ट मार्ग पर चलने का दृढ़ संकल्प करें और चलें।