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गांधीजी की जैन धर्म को देन
११९ कम होते ही नीचे की मिट्टी में दरारें पड़ती हैं और मिट्टी एकरूप न रह कर विभक्त हो जाती है वैसे ही जैन परम्परा का धर्मकलेवर भी अनेक टुकड़ों में विभक्त हुआ
और वे टुकड़े स्पंदन के मिथ्या अभिमान से प्रेरित होकर आपस में ही लड़ने-झगड़ने लगे। जो धर्मचेतना के स्पंदन का मुख्य काम था वह गौण हो गया और धर्मचेतना की रक्षा के नाम पर वे मुख्यतया गुज़ारा करने लगे।
धर्म-कलेवर के फिरकों में धर्मचेतना कम होते ही आसपास के विरोधी दलों ने उनके ऊपर बुरा असर डाला । सभी फिरके मुख्य उद्देश्य के बारे में इतने निर्बल साबित हुए कि कोई अपने पूज्य पुरुष महावीर की प्रवृत्ति की योग्य रूपमें आगे न बढ़ा सके। स्त्री-उद्धार की बात करते हुए भी वे स्त्री के अबलापन के पोषक ही रहे । उच्च-नीच भाव और छूआछूत को दूर करने की बात करते हुए भी के जातिवादी ब्राह्मण परम्परा के प्रभाव से बचन सके और व्यवहार तथा धर्मक्षेत्र में उच्च-नीच भाव और छूआछूतपने के शिकार बन गये । यज्ञीय हिंसा के प्रभाव से वे जरूर बच गये और पशु पक्षी की रक्षा में उन्होंने हाथ ठीक ठीक बटाया; पर वे अपरिग्रह के प्राण मूर्छा त्याग को गँवा बैठे । देखने में तो सभी फिरके अपरिग्रही मालूम होते रहे; पर अपरिग्रह का प्राण उनमें कम से कम रहा । इसलिए सभी फिरकों के त्यागी अपरिग्रह व्रत की दुहाई देकर नंगे पांव से चलते देखे जाते हैं, लुंचन रूप से बाल तक हाथ से खींच डालते हैं, निर्वसन भाव भी धारण करते देखे जाते हैं, सूक्ष्म-जन्तु की रक्षा के निमित्त मुँह पर कपड़ा तक रख लेते हैं; पर वे अपरिग्रह के पालन में अनिवार्य रूप से आवश्यक ऐसा स्वावलंबी जीवन करीब-करीब गँवा बैठे हैं । उन्हें अपरिग्रह का पालन गृहस्थों की मदद के सिवाय सम्भव नहीं दीखता । फलतः, वे अधिकाधिक पर परिश्रमावलम्बी हो गए हैं। - बेशक, पिछले ढाई हज़ार वर्षों में देश के विभिन्न भागों में ऐसे इने-गिने अनागार त्यागी और सागार गृहस्थ अवश्य हुए हैं जिन्होंने जैन परम्परा की मूर्छितसी धर्मचेतना में स्पन्दन के प्राण फूंके । पर एक तो वह स्पन्दन साम्प्रदायिक ढंग का था जैसा कि अन्य सम्प्रदायों में हुआ है और दूसरे वह स्पन्दन ऐसा कोई दृढ़ नींव पर न था जिससे चिरकाल तक टिक सके । इसलिए बीच बीच में प्रकट हुए धर्मचेतना के स्पन्दन अर्थात् प्रभावनाकार्य सतत चालू रह न सके ।