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लेखांक १०
गांधीजी की जैन धर्म को देन
धर्म के दो रूप होते हैं। संप्रदाय कोई भी हो उसका धर्म बाहरी और भीतरी दो रूपों में चलता रहता है । बाह्य रूप को हम 'धर्म कलेवर' कहें तो भीतरी रूप को 'धर्म चेतना' कहना चाहिए ।
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धर्म का प्रारम्भ, विकास और प्रचार मनुष्य जाति में ही हुआ है। मनुष्य खुद न केवल चेतन है और न केवल देह । वह जैसे सचेतन देहरूप है वैसे ही उसका धर्म भी चेतनायुक्त कलेवररूप होता है । चेतना की गति, प्रगति और अवगति कलेवर के सहारे के बिना असंभव है । धर्म चेतना भी बाहरी आचार रीति- रस्म, रूढ़ि - प्रणाली आदि कलेवर के द्वारा ही गति, प्रगति और अवनति को प्राप्त होती रहती है।
धर्म जितना पुराना उतने ही उसके कलेवर नानारूप से अधिकाधिक बदलते आते हैं। अगर कोई धर्म जीवित हो तो उसका अर्थ यह भी है कि उसके कैसे भी भद्दे या अच्छे कलेवर में थोड़ा-बहुत चेतना का अंश किसी न किसी रूप में मौजूद हैं । निष्प्राण देह सड़ गल कर अस्तित्व गँवा बैठती है । चेतनाहीन सम्प्रदाय कलेवर की भी वही गति होती है ।
जैन परंपरा का प्राचीन नाम-रूप कछ भी क्यों न रहा हो ; पर वह उस समय से अभी तक जीवित है । जब-जब उसका कलेवर दिखावटी और रोगग्रस्त हुआ है तब-तब उसकी धर्मचेतना का किसी व्यक्ति में विशेषरूप से स्पन्दन प्रकट हुआ है । पार्श्वनाथ के बाद महावीर में स्पन्दन तीव्र रूप से प्रकट हुआ जिसका इतिहास साक्षी है ।