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लेखांक ५
जैन धर्म का प्राण
ब्राह्मण और श्रमण परंपरा
अभी जैनधर्म नाम से जो आचार विचार पहचाना जाता है वह भगवान पार्श्वनाथ के समय में खासकर महावीर के समय में निग्गंठ धम्म - निर्ग्रन्थ धर्म नाम से भी पहचाना जाता था, परंतु वह श्रमण धर्म भी कहलाता है। अंतर है तो इतना ही है कि एकमात्र जैनधर्म ही श्रमण धर्म नहीं है, श्रमण धर्म की और भी अनेक शाखाएँ भूतकाल में थीं और अब भी बौद्ध आदि कुछ शाखाएँ जीवित हैं। निर्ग्रथ धर्म या जैनधर्म में श्रमण धर्म के सामान्य लक्षणों के होते हुए भी आचार विचार की कुछ ऐसी विशेषताएँ हैं जो उसको श्रमण धर्म की अन्य शाखाओंसे पृथक् करती हैं। जैनधर्म के आचार विचार की ऐसी विशेषताओं को जानने के पूर्व अच्छा यह होगा कि, हम प्रारंभ में ही श्रमण धर्म की विशेषता को भलीभांति जान लें जो उसे ब्राह्मण धर्म से अलग करती हैं।
प्राचीन भारतीय संस्कृति का पट अनेक व विविधरंगी है, जिसमें अनेक धर्म परंपराओं के रंग मिश्रित हैं । इसमें मुख्यतया ध्यान में आनेवाली दो धर्म परंपराएँ हैं (१) ब्राह्मण (२) श्रमण। इन दों परंपराओं के पौर्वापर्य तथा स्थान आदि विवादास्पद प्रश्नों को न उठाकर, केवल ऐसे मुद्दों पर थोड़ी सी चर्चा की जाती है, जो सर्वसंमत जैसे हैं तथा जिनसे श्रमण धर्म की मूल भित्ती को पहचानना और उसके द्वारा निर्ग्रन्थ या जैनधर्म को समझना सरल हो जाता है।
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