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प्रज्ञा संचयन
संस्था के संविधान तथा अन्य अनेक परिबलों के प्रभाव के कारण जैन परंपरा का व्यवहार निवृत्तिगामी हो रहा और शास्त्र की परिभाषाएँ मुख्यतः निवृत्तिपोषक ही रहीं । यद्यपि इतिहास समाज का गठन भिन्न प्रकार से कर रहा था और वह जैन परंपरा के व्यवहार में एवं शास्त्रीय परिभाषाओं में परिवर्तन की मांग कर रहा था, फिर भी वह कार्य आज तक अपूर्ण ही रहा है। संस्कारों का प्रभाव
जब कोई चिंतनशील व्यक्ति जैन परंपरा के आचार-विचार का अनुसरण करता है तथा जैन शास्त्रों का अध्ययन करता है तब हज़ारों वर्ष पूर्व गठित वे मानदंड तथा व्याख्याएँ - वे परिभाषाएँ इतने दृढ़ रूप से उसके मन को प्रभावित करते हैं कि वह उन्हें भेद कर शायद ही सोच सकता है । सिद्धांत एक ही हो, लेकिन वह संयोगों के अनुसार किस प्रकार भिन्न भिन्न रूप से कार्य करता है इस तत्त्व को समझना ऐसी स्थिति में कठिन हो जाता है।
गांधीजी आध्यात्मिकता सिद्ध करना चाहते थे । उसकी भूमिका के रूप में उन्होंने अपने जीवन में अहिंसा आदि तत्त्वों को स्थान दिया। किंतु उनका दृष्टिबिंदु महायानमार्गी होने के कारण दूसरे लोगों को सुखी देखे बिना स्वयं को सुखी नहीं मान सकते थे। एक तो गांधीजी का दृष्टिबिंदु महायानी और उसमें अहिंसा का तत्त्व . जुड़ गया अतः स्वाभाविक रूप से ही उनका जीवन लोककल्याण की दिशा में मुड़ गया और उनकी आध्यात्मिक शुद्धि की दृष्टि ने उन्हें अनासक्त कर्म योग की प्रेरणा दी । अहिंसा के प्रबल संस्कार उन्हें जन्म से ही प्राप्त थे अतः उन्होंने अपनी अहिंसा को प्रवृत्ति के सभी क्षेत्रों में प्रवाहित किया। गीता के अनासक्त कर्मयोग के अनुसार जीवन के गठन हेतु मंथन शुरु किया, फिर भी गीता के सशस्त्र प्रतिकार को टालने हेतु उन्होंने भगीरथ प्रयास भी किया। ... यहाँ की गई चर्चा इतना जानने के लिए पर्याप्त होगी कि जैन परंपरा सामाजिक बनी फिर भी उसके अनुयायियों का रवैया अहिंसा की प्राथमिक भूमिका स्वरूप निवृत्तिलक्षी ही रहा है । जब कि गांधीजी का अहिंसा धर्म आत्मलक्षी एवं समाजलक्षी होने के कारण उसमें सांसारिक - सामाजिक निवृत्ति के आग्रह की संभावना ही नहीं है। समाज के श्रेय एवं प्रेय के हेतु अनेकविध प्रवृत्तियाँ करना ऐसी