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प्रज्ञा संचयन
वृत्तियों के उन्मूलन का मार्ग लिया । ऐसी वृत्तियों का उन्मूलन करना अर्थात् अपने आपके दोषों को दूर करना । ऐसे दोष अर्थात् हिंसा और उन्हें अपने जीवन में स्थान लेने से रोकना वही अहिंसा । उसी प्रकार ऐसे दोषों में से जन्म लेनेवाली प्रवृत्तियाँ हिंसा है और ऐसी प्रवृत्तियों का त्याग अहिंसा है । इस प्रकार मूलतः अहिंसा का अर्थ अपने दोषों का त्याग ऐसा होते हुए भी उसके साथ तन्मूलक प्रवृत्तियों का त्याग ऐसा दूसरा अर्थ भी जुड़ गया । जो अपनी वासनाओं को निर्मूल करना चाहते हों वे जिन जिन प्रवृत्तियों में इन वासनाओं का संभव हो उन प्रवृत्तियों का भी त्याग करते । यह साधना कुछ आसान नहीं थी। ऐसी दीर्घ साधना हेतु कुछ दुन्यवी प्रपंचों से मुक्त होना अनिवार्य था। अतः दुन्यवी - सांसारिक प्रवृत्तियों से अलग हो कर आध्यात्मिक साधना करने की प्रथा का आरंभ हआ। यह बात स्पष्ट है कि इस साधना का मूल हेतु था अपने दोषों से निवृत्त होना तथा किसी भी परिस्थिति में उन दोषो से अलिप्त रह सकें ऐसी क्षमता प्राप्त करना । अहिंसा की प्राथमिक तथा मुख्य निवृत्ति सिद्ध करने हेतु संयम के तथा तप के अन्य जितने भी भिन्न भिन्न प्रकार अस्तित्व में आये वे सब प्रायः निवृत्तिलक्षी ही थे और इस कारण से अहिंसा, तप या संयम की सभी परिभाषाएँ निवृत्तिलक्षी ही बनाई गईं। दूसरी ओर आध्यात्मिक शुद्धि की साधना केवल व्यक्तिगत न रही और उसने संघ और समाज में भी स्थान लेना शुरु किया । जैसे जैसे वह संघ तथा समाज में प्रविष्ट होती गई, वह अधिकतर विस्तृत होती गई परंतु उसकी गहराई कम होती गई। संघ और समाज में उस साधना का प्रवेश करवाने हेतु तथा उसे चिरस्थाई - दृढ़तर बनाने हेतु अहिंसा संयम तथा तप के अर्थ के विषय में पुनर्विचारणा की गई और उसमें जो मूलभूत संभावनाएँ थीं तदनुसार उसका विकास भी किया गया । जैन परंपरा तथा बौद्ध धर्म
दीर्घ तपस्वी भगवान महावीर का जीवन जितना अधिक निवृत्तिलक्षी था उतना निवृत्तिलक्षी उनके समकालीन तथागत बुद्ध का न था । यद्यपि दोनों अपनी अहिंसा को समाजगत करने हेतु प्रयत्नशील थे । बुद्ध ने अहिंसा और संयम को अपने जीवन में पूर्णतः आत्मसात् कर लिया था, फिर भी उन्होंने अहिंसा और संयम के अर्थको अधिक विस्तृत करते हुए प्रवृत्ति के द्वारा व्यावहारिक लोकसेवा के बीज भी बोये । इस विषय में जैन परंपरा बौद्ध परंपरा की तुलना में कुछ पीछे रही और . संयोगवशात् उसमें प्रवृत्ति का परिमित तत्त्व प्रविष्ट होने पर भी निवृत्ति का ही